Book Title: Bhagavati Jod 02
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 535
________________ ढाल : १६२ १. आहारक-तन-प्रयोग-बंध, हे प्रभ ! कितै प्रकार? जिन भाखै सुण गोयमा ! कह्यो एक आकार ॥ १. आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते। (श० ८।४०५) २. जइ एगागारे पण्णत्ते किं मणस्साहारगसरीरप्पयोग बंधे ? अमणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे ? ३. गोयमा ! मणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे नो अमणु स्साहारगसरीरप्पयोगबंधे । ४. एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहणसंठाणे २. जो एक आकार परूपियो, तो स्यू मनुष्य मझार । __ आहारक-तनु-प्रयोग-बंध, के अमनुष्य विचार ? ३. श्री जिन भाखै मनष्य में, आहारक शरीर थाय । ___ मनुष्य विना अन्य जीव में, आहारक तनु नहिं पाय । ४. इम इण आलावे करी, जिम अवगाहण संठाण । पन्नवण' पद इकवीस में, आख्यो तिम पहिछाण ॥ ५. जावत आहारक लब्धिवंत, प्रमत्तसंजती सोय। सम्यकदुष्टि पज्जत्त ते, वर्ष संख्याय होय ॥ ६. कर्मभूमि गर्भज मन, आहारक शरीर थाय। लब्धि बिना जे प्रमत्त में, यावत आहारक नाय ।। ७. हे भगवंत ! ते आहारक-तन-प्रयोग-बंध ताय । किसा कर्म उदय है? तब भाखै जिनराय ॥ ८ वीर्य सजोग सद्व्यपणे, जाव इहां लग जाण । आहारक लब्धि प्रतै वलि, आश्रयी नै पहिछाण ॥ ६. आहारक-तन-प्रयोग ते, नाम कर्म है तास । • उदय करि आहारक-तन-प्रयोग-बन्ध विमास ॥ __ *हरष धर सांभलो गोयमजी ।। (ध्र पदं) १०. हे प्रभुजी ! आहारक तन साहिबजी, स्य देश-बंध सर्व-बंध हो निस्नेही। जिन भाखै देश-बन्ध छ गोयमजी ! सर्व-बन्ध पिण संध हो गणधारी॥ ११. बन्ध आहारक शरीर प्रयोग नों, काल थकी कितो काल होय? जिन भाखै सर्व-बंध नों, एक समय अद्धा जोय ॥ १२. देश-बंध ते जघन्य थी, अंतर्मुहूर्त न्हाल । उत्कृष्टो पिण तेहनों, अंतर्मुहुर्त काल ।। *लय : घोड़ी तो आई थारा देश में १. पण्ण. २११७३,७४ ५, ६. जाव इढिपत्तपमत्तसंजयसम्मदिट्रिपज्जत्तसंखेज्जवासाउयकम्मभूमागब्भवक्कं तियमणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे नो अणिढिपत्तपमत्त जाव (सं० पा०) आहारगसरीरप्पयोगबंधे। (श० ८।४०६) ७. आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? ८. गोयमा ! वीरिय-सजोग-सद्दव्वयाए जाव (सं० पा०) लद्धि वा पडुच्च ६. आहारगसरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं आहारगसरीरप्पयोगबंधे। (श० ८।४०७) १०. आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कि देसबंधे ? सव्वबंधे ? गोयमा ! देसबंधे वि सव्वबंधे वि । (श० ८।४०८) ११. आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालओ केव चिरं होइ? गोयमा ! सव्वबंधे एक्कं समयं १२. देसबंधे जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं । (श० ८।४०६) थ०८,०६, ढा०१६२ ५१५ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582