Book Title: Bhagavati Jod 02
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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१३. जपन्य अनं उत्कृष्ट, अंतर्मुहूर्त्त मात्र इज । आहारक शरीर इष्ट पर्छ ओदारिक अवश्य ग्रहै ॥
१४. ते अंतर्मुहूर्त्त मांहि प्रथम समय में उत्तर काले ताहि, देशबंधकारक १५. अथ हिव आहारक तेह, शरीर प्रयोग-बंध अंतर- काल कहेह, चित्त लगाई सांभलो ॥
सर्व-बन्ध | कह्यं ॥ नुं ।
सोरठा
१६. हे प्रभुजी ! तेहनुं अंतर काल
आहारकतनु- प्रयोग-बंध सुजोय । थी, कितो काल ते होय ? ( परम गुण आगला प्रभुजी ) गोयमा ! सर्व-बन्ध नुं न्हाल | यी अंतर्मुहूर्त
काल ॥
सोरठा
समय
१५. मन आहारक तन पाय सर्व-बंध पहिले पर्छ देशबंध पाय, अंतर्महर्स रही करी ॥
१७. जिन भाखै सुण अंतर आख्यो जघन्य
१२. प ओदारिक बात, त्यां पिण अंतर्मुहर्त रही। बलि आहारक अवदात करिया नों कारण थयो ।
२०. प्रथम समय सर्व-बंध इम बेहूं सर्व-बन्ध नों। अंतरकाल अंतर्मुहूर्त नों थयो ।
कहंद
२१. आहार तन् नों आंतरो उत्कृष्ट काल अनंत । अनंतीज अवसर्पिणी, बलि उत्सपिणी हुंत ॥ २२. क्षेत्र की कहिये हिवं, लोक अनंता जोय। अर्द्ध पुद्गलपरावर्त्त है, देश ऊण अवलोय ॥
*लय : घोड़ी तो आई थांरा देश में ५१६ भगवती जोड़
"
सोरठा २३. अपार्द्ध पुद्गल ख्यात, अर्द्ध मात्र ने आखियो । ते अर्द्ध पूर्ण विण बात, तिथ सूं अर्द्ध देश ऊण ए ॥
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उत्कर्षतश्चान्तर्ममा वमेवाहारकरीरी परत औदारिकशरीरस्यावश्यं ग्रहणात्
( वृ० प० ४०६ )
१४. तत्र चान्तर्मुहूर्त आवसमये सर्वबन्धः उत्तरकाल देशबन्ध इति । (०१० ४०६)
१५. अाहारशरीरप्रयोगस्वान्तरनिरूपणायाह
१३. जघन्यतः भवति,
( वृ० प० ४०९ )
णं भंते! कालओ
१६. आहारमसरी रपयोगवंतर केवच्चिरं होइ ?
१७. गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहणणेणं अंतोमुहुत्तं ।
१०. मनुष्य आहारकशरीरं प्रतिपत्रस्तमसम सर्वबन्धकस्ततोऽन्तर्मुहुर्त्तमात्रं स्थित्वा
( वृ० प० ४०१ ) ११. दार गतस्तत्राप्यन्तर्मुह स्थितः पुनरपि चतस्य संवादि आहारकशरीरकरणकारणमुत्पन्नं ततः पुनरप्याहारकशरीरं गृह्णाति ।
( वृ० प० ४०९ ) २०. तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धक एवेति एवं च सर्वबन्धान्तरमन्तर्मुहूर्तं द्वयोरप्यन्तर्मुहूर्त्तयोरेकत्वविवक्षणादिति ।
( वृ० प० ४०९) २१. उक्कोसेणं अनंतं कालं -अणंताओ ओसप्पिणीओ उस्सप्पिणीओ कालओ
२२. खेत्तओ अनंता लोगा - अवड्ढपोग्गलपरियटं देसूणं ।
२३. पार्थम् अपगतार्द्धममात्रमित्यर्थः मुद्गलपरावर्त' प्रागुक्तस्वरूपं भागध्ययंत पूर्ण स्वादत आह देशोनमिति (१० १०४०२) वृ०
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