Book Title: Bhagavati Jod 02
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 532
________________ ८२. बिहुं सर्व-बंध नों धार, जघन्य थकी तसु अंतरो। ५२. इत्येवं सर्वबन्धान्तरं जघन्यमष्टादश सागरोपमाणि आख्या उदधि अठार, अधिका पृथक-वर्ष इम ॥ वर्षपृथक्त्वाधिकानीति (वृ० प० ४०८) ८३. उत्कृष्ट काल अनंत, आनत सुर चव नर थई । ८३. उत्कृष्टं त्वनन्तं कालं, कथम् ? स एव तस्माच्युतोऽवनस्पत्यादिक हुंत, वलि आनत सुर सर्व-बंध ॥ नन्तं कालं वनस्पत्यादिषु स्थित्वा पुनस्तत्रवोत्पन्नः प्रथमसमये चासौ सर्वबन्धक इत्येवमिति (वृ० प० ४०८) ५४. *आनत नोआनत वलि आनत, देश-बंध नों पावत । ८४. देशबंधंतरं जहणणं वासपुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं जघन्य पृथक-वर्ष अंतर न्हाल, उत्कृष्ट वणस्सइ-काल ॥ कालं-वणस्सइकालो सोरठा ८५. आनत सुर भव छह, देशबंध करतो चवी। ८५. स एव देशबन्धकः संश्च्युतो वर्षपृथक्त्वं मनुष्यत्वमनुमनुष्यपणे ऊपजेह, वर्ष-पथक मैं आउखै । (वृ० प० ४०८) ८६. वलि आनत सुर थाय, सर्व-बंध थइ देश-बंध । ५६. पुनस्तत्र व गतस्तस्य च सर्वबन्धानन्तरं देशबन्ध जघन्य थकी इम पाय, देश बंधांतर पृथक-वर्ष । इत्येवं सूत्रोक्तमन्तरं भवति । (वृ० प० ४०८) ८७. इहां यद्यपि सर्व-बंध, समयाधिक वर्ष-पृथक ह्र । ८७. इह च यद्यपि सर्वबन्धसमयाधिकं वर्षपृथक्त्वं भवति तथापि तेहनों संध, वर्ष-पृथक में वंछियै ।। तथापि तस्य वर्षपृथक्त्वादनन्तरत्वविवक्षया न ८८. उत्कृष्ट काल अनंत, आनत सुर चव नर थइ । भेदेन गणनमिति, (वृ० प० ४०८) वनस्पत्यादिक हुँत, वलि आनत सर्व देश-बंध ॥ ८९. *इम जाव अच्च नवरं स्थिति जास, तिका सर्व बंधांतरे तास । ८६. एवं जाव अच्चुए, नवरं-जस्स जा ठिती सा सव्वजघन्य पृथक-वर्ष अधिकज कहिवं, शेष पूर्ववत लहिवं ॥ बंधंतरं जहणणं वासपुहत्तमब्भहिया कायव्वा, सेसं तं चेव । (श० ८।४०१) ६०. ग्रैवेयक कल्पातीत नीं पृच्छा, सर्व-बंधांतर इच्छा।। ६०. गेवेज्जाकप्पातीतापुच्छा। जघन्य बावीस उदधि पृथक-वास, उत्कृष्ट अनंत काल तास ॥ गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेण बावीसं सागरोवमाई वासपुहत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो। ६१. देश-बंधांतर जघन्य थी ताय, वास-पृथक कहिवाय । ६१. देसबंधंतरं जहण्णेणं वासपुहत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइउत्कृष्ट वनस्पति नों काल, न्याय पूर्ववत न्हाल ॥ कालो (श० ८।४०२) सोरठा ६२. हरिभद्र सूरि कृत तेह, 'जीव-समास' विषे कह्म। तृतीय कल्प सू लेह, सहसार नां सुर जिकै ॥ ६३. जघन्य थकी आख्यात, नव दिन मन आय थकी। तृतीय कल्प उपपात, यावत अष्टम कल्प में। ६४. आनतादिक कल्प चार, नवमासाय मन थकी। उपजे इम वृत्तिकार, कह्य मतांतर तेहनें। ६५. 'सूत्र थकी ए विरुद्ध, 'जीव-समास' विषे कह्य । बातां विविध असुद्ध, प्रकरण टीका में कही। ६२-६४. अथ सनत्कुमारादिसहस्रारान्ता देवा जघन्यतो नवदिनायुष्केभ्यः आनताद्यच्युतान्तास्तु नवमासायुष्केभ्यः समुत्पद्यन्त इति जीवसमासेऽभिधीयते,..... केवलं मतान्तरमेवेदमिति । (वृ० प० ४०८, ४०६) *लय : समझू नर विरला ५१२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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