Book Title: Bhagavati Jod 02
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 512
________________ ७६. अविग्रहेण च यदोत्पद्य सर्वबन्धक एव भवति तदा सर्वबन्धयोर्यथोक्तमंतरं भवतीति । (वृ० प० ४०२) ७७. उत्कृष्टतः सर्वबन्धान्तरं द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि समयाधिकानि भवन्ति, कथम् ? (वृ० प० ४०२) ७८. अविग्रहेण पृथिवीकायिकेष्वागतः प्रथम एव च समये सर्वबन्धकः, (वृ० प० ४०२) ७६,८०. ततो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि स्थित्वा समयो नानि विग्रहगत्या त्रिसमयाऽन्येषु पृथिव्यादिषूत्पन्नस्तत्र च समयद्वयमनाहारको भूत्वा तृतीयसमये सर्वबन्धक: सम्पन्न:, (वृ० प० ४०२) ८१. अनाहारकसमययोश्चैक: (वृ० प० ४०२) ८२. द्वाविंशतिवर्षसहस्रेषु समयोनेषु क्षिप्तस्तत्पूरणार्थम्, (वृ० प० ४०२) ७६. अविग्रह करि तेह, उपजी में सर्व-बंध थयो। यथोक्त अंतर एह, सर्व-बंध न जाणवू॥ ७७. एकेंद्री तन औदार, उत्कृष्ट अंतर सर्व-बंध । वर्ष बावीस हजार, एक समय करि अधिक किम ? ७८. अविग्रह करि कोय, आयो पृथ्वी नै विषे । प्रथम समय ते होय, सर्व-बंधकारक तदा ॥ ७६. पछै बावीस हजार, वर्ष समय ऊणो रही। काल कियो तिण वार, तीन समय विग्रह करी।। ८०. अन्य पृथव्यादिक मांहि, उपनो तिहां बे धर समय । अणाहारक थइ ताहि, सर्व-बंध तीजै समय ।। ८१. अणाहारक नां जोय, दोय समय पूर्व कह्या । तेह मांहिलो सोय, समयो इक काढी करी ॥ ८२. समय ऊण बावीस, सहस्र वर्ष जे देश बंध । ते माहै सुजगीस, एक समय ते घालतां ॥ ८३. वर्ष बावीस हजार, पूरा ए इहविध थया । एक समय रह्यो लार, अधिकेरो इम जाणिय ।। ८४. एकेंद्री तनुं औदार, सर्व-बंध - अंतरो। वर्ष बावीस हजार, समय अधिक उत्कृष्ट इम ।। ८५. *एकेंद्रि तनु औदारिक नां देश-बंध नों हो जघन्य अंतर जाण । एक समय तसु आखियो, उत्कृष्टो हो अंतर्महत आण । सोरठा ८६. एकेंद्री तन औदार, देश-बंध नं अंतरो। जघन्य थकी सुविचार, एक समय ते किम हुई ? ५७. देश-बंध करि काल, अविग्रह करि ऊपनों । पहिले समय निहाल, सर्व-बंध थइनै पछै ।। ८८. दूजे समये देख, देश-बंध वलि ते थयो। एक समय इम पेख, देश बंध नों अंतरो॥ ८६. एकेंद्री तन औदार, देश बंध नों अंतरो। उत्कृष्टो सुविचार, अंतर्मुहुर्त किम हुई ? ६०. वाऊ औदारीक, देश-बंधकारक थको। वैक्रिय पाय सधीक, त्यां अंतर्मुहुर्त रही। ६१. तन औदारिक तेह, सर्व-बंध रहिनं वलि । देश-बंध ह जेह, उत्कृष्ट अंतर्मुहुर्त इम ।। ८४. ततश्च द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि समयश्चकेन्द्रियाणां सर्वबन्धयोरुत्कृष्टमन्तरं भवतीति । (वृ०प० ४०२) ८५. देसबन्धंतरं जहणणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । (श० ८।३८०) ८६. तत्रैकेन्द्रियौदारिक देशबन्धान्तरं जघन्येनैक समयं, कथम् ? (वृ० प० ४०२) ८७. देशबन्धको मृतः सन्नविग्रहेण सर्वबन्धको भूत्वा एकस्मिन् समये, (वृ० ५० ४०२) ८८. पुनर्देशबन्धक एव जातः, एवं च देशबन्धयोर्जघन्यत एकः समयोऽन्तरं भवतीति । (वृ० ५० ४०२) ८६. 'उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं' ति कथम् ? (वृ० प० ४०२) ६०. वायुरौदारिकशरीरस्य देशबन्धकः सन् वैक्रियं गतस्तत्र चान्तर्मुहूत्तं स्थित्वा (वृ० प० ४०२) ६१. पुनरौदारिकशरीरस्य सर्वबन्धको भूत्वा देशबन्धक एव जातः, एवं च देशबन्धयोरुत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्तमन्तरमिति । (वृ० प० ४०२) *लय : वीर सुणो मोरी वीनती ४६२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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