Book Title: Bhagavati Jod 02
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 513
________________ १२. * पृथ्वीका एकेंद्रिय, तेहनीं पूछा हो कीधी गोयम जाण । श्री जिन भार सांभलो, सर्व-बंधनों हो उत्तर दम आण ।। ३. जिम एकेंद्री सर्व-बंध नों, अंतर आख्यो हो पूर्वे पहिछाण । तिमहिज पृथ्वीकाय नों, सर्व-बंध न हो अंतर ए जाण ॥ ४. पृथ्वीका एकेंद्रिय, देश- बंधनों हो अंतर अवलोय । जघन्य थकी इक समय से उत्कृष्ट हो तीन समया होय ॥ सोरठा अंतरो । ५. एकेंद्री पृथ्वी काय, तास देश-बंध जपन्य थकी कहिवाय, एक समय ते किम हुई ? मूजो पको ॥ ९६. पृथ्वीकायिक जेह, देश बंध अविग्रह करि तेह, ६७. एक समय अवलोय, सर्व बंध देश- बंध ते होय, इम अंतर इक पृथ्वीपर्णेज ऊपनों ॥ थइनें वलि । समय ह ॥ । देश-बंध नाँ अंतरी । उत्कृष्टो कहिवाय, त्रिण समया ते किम हुई ? देश-बंध मूओ छतो । विग्रह गति करिन तिको ।। अणाहारक बे धुर समय । सर्व-बंध थइ नै वलि ॥ विध त्रिण समयां तणो । उत्कृष्टो अवलोय, देश -बंध नुं अंतरो ॥ १८. एकेंद्री पृथ्वीकाय, ६६. पृथ्वी कायिक जेह, तीन समय नीं तेह, १००. उपनो पृथ्वी मांहि, तीजे समये ताहि, १०१. देश- बंध ते होय, इह १०२. *जिम कह्या पृथ्वीकाइया, इमहिज कहिवा हो जाव चउरिंद्री देख | वायूकाय वर्जी करी, णवरं कहिवो हो एतलोज विशेष || १०३. सर्व बंधनों अंतरों, उत्कृष्टो हो कहिये इम जोय । जिका स्थिति जेहनीं समयाधिक हो कहिबू अवलोय ॥ सोरठा 1 १०४. पृथ्वी जिम कहिवाय अप थी नउरिद्री लगे। तेह देखाई न्याय, चित्त लगाई सांभलो ॥ १०५ अपकाय नों जोय, जघन्य सर्व-बंध अंतरो । खुड्डाग भव अवलोय, तीन समय ऊगो का ॥ १०६. वलि अपकाय मकार, सर्व-बंध नों अंतरो । उत्कृष्ट अवधार, सप्त सहस समय अधिक ॥ १०७. देश बंध अपकाय, जघन्य समय इक अंतरो । उत्कृष्टो कहिवाय, तीन समय नुं जाणिव ॥ *लय : वीर सुणो मोरी वीनती Jain Education International २. पुट विकाइदियपृच्छा। २२. व्यंतरं हे एगिदियरस तब भाषिय ४. सबंधंतरं जणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं तिण्णि 1 समया । १५. पुढविकाइए' 'स्यादि सबंध जहने एकं समयं त्ति कथं ? ( वृ० १०४०२ ) मृतः सन्नविग्रहा १६. पृथिवीकविको बन्धको पृथिवीका बोत्पन्नः ( वृ० प० ४०२ ) ६७. एकं समयं च सर्वबन्धको भूत्वा पुनर्देशबन्धको जातः एवमेकसमयो देशबन्धयोजघन्येनान्तरं । (बु०प०४०२) त्यादि... उक्को सेणं तिन्नि समय ६८. 'पुढविकाइए' ति कथम्? २६. तथा पृथिवीकाधिदेव विग्रहेग ( वृ० प० ४०२ ) मुतः सन् त्रिसमय ( वृ० प० ४०२ ) १००. तेष्वेवोत्पन्नस्तत्र च समयद्वयमनाहारकः तृतीयसमये च सर्वबन्धको भूत्वा पुनः ( वृ० प० ४०२ ) १०१. देशबन्धको जातः, एवं च त्रयः समया उत्कर्षतो देशबन्ध योरन्तरमिति । (बु०प०४०२) १०२. जहा पुढविक्काइयाणं एवं जाव चउरिदियाणं वाउवकाइयवज्जाणं, नवरं - १०३. सव्वबंधंतर उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समयाहिया कायन्वा । १०४. अथाप्कायिकादीनां बन्धान्तरमतिदेशत आह-( वृ० प० ४०२) १०५. अप्कायिकानां जघन्यं सर्वबन्धान्तरं क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोनं ( वृ० ५० ४०२ ) १०६. उत्कृष्टं तु सप्त वर्षसहस्राणि समयाधिकानि ( वृ० प०४०२) १०७. देशबन्धान्तरं जघन्यमेकः समय उत्कृष्टं तु त्रयः (बु०प०४०२) समयाः For Private & Personal Use Only ० उ० ६, ढा० १५८ ४६३ www.jainelibrary.org

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