Book Title: Bhagavati Jod 02
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 517
________________ १५२. एकेंद्रिय में आय, अविग्रह धर समय में । १५२. अविग्रहेण चागत्य प्रथमसमये सर्वबन्धको भूत्वा . सर्व-बंध जे थाय, देश-बंध द्वितिये समय। द्वितीये देशबन्धको भवति। (वृ० प० ४०३) १५३. ते माट कहिवाय, खडाग भव इह विध हुई। १५३. एवं च देशबन्धान्तरं क्षुल्लकभवः सर्वबन्धसमयातिएक समय अधिकाय, जघन्य देश-बंध अंतरो॥ रिक्तः। (वृ० प० ४०३) १५४. उत्कृष्ट दोय हजार, वर्ष संख्याता अधिक वलि । १५४. 'उक्कोसेण' मित्यादि सर्वबन्धान्तरभावनोक्तप्रकारेण विच त्रस भव स्थितिकार, तास भावना पूर्ववत ॥ भावनीयमिति । (वृ० प० ४०३) १५५. *प्रभ ! पृथ्वीकायपणां थकी, ते नोपृथ्वी हो अपकायादि मांय । १५५. जीवस्स णं भंते ! पुढविक्काइयत्ते, नोपुढविक्काइयत्ते, ऊपजी मैं ते जीवड़ो, वलि ऊपज हो पृथ्वोकाय में आय॥ पुणरवि पुढविक्काइयत्ते १५६. पृथ्वीकाय एकेंद्रिय, तन औदारिक हो प्रयोग-बंध नों जाण। १५६. पुढविक्काइयएगिदियओरालियसरीप्पयोगबंधंतरं काल थी अंतर केतलो? जिन भाख हो सूणजो वर वाण ।। कालओ केवच्चिरं होइ ? १५७. सर्व-बंध जघन्य अंतरो, दोय क्षल्लक भव हो ऊणा समया तीन। १५७. गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णणं दो खुड्डाइं भव पुरवली पर भावना, उत्कृष्टो हो काल अनंतो चीन ॥ गहणाई तिसमयूणाई, उक्कोसेणं अणतं काल दूहा १५८. काल अनंतपणुं इहां, वनस्पती नी जाण । १५८. कालानन्तत्वं वनस्पतिकायस्थितिकालापेक्षयाऽनन्तकाय-स्थिति नां काल नी, अपेक्षया पहिछाण॥ कालमित्युक्तं (वृ० प० ४०३) १५६. *तास विभजन अर्थे कहै, अनंत काल नां हो समया नीं राश। १५६. तद्विभजनार्थमाह- (वृ०५० ४.३) अवसप्पिणी उत्सत्पिणी, तेण समय करि हो अपहरतां तास ॥ अणंताओ ओसप्पिणीओ उस्सप्पिणीओ कालओ, अयमभिप्रायः-तस्यानन्तस्य कालस्य समयेषु अवस प्पिण्युत्सप्पिणीसमयैरपह्रियमाणेषु (व०प०४०३) १६०. अनंती ते अवसर्पणी, वलि अनंती हो उत्सप्पिणी होय । १६०. अनन्ता अवसप्पिण्युत्सप्पिण्यो भवन्तीति काल अपेक्षाय मान ए, क्षेत्र अपेक्षा हो हिव आगल जोय।। (वृ०प० ४०३) १६१. क्षेत्र थी लोक अनंत ही, तास अर्थ इम हो सुणजो सह कोय। १६१, १६२. खेत्तओ अणंता लोगा अणंत काल नां समय नीं, राशि भेली करि हो तसु अपहरै जोय ॥ अयमर्थः-तस्यानन्तकालस्य समयेषु लोकाकाशप्रदेश१६२. लोक तणां आकाश नां, प्रदेशे करि हो समय अपहरै तेह । रपह्रियमाणेष्वनन्ता लोका भवन्ति । अनंता लोक हुवै तदा, ए चरचा में हो विरला समझेह ।। (वृ० ५० ४०३) सोरठा १६३. अनंत लोक नां जोय, जिता आकाश प्रदेश छै । तिता समय नी होय, अवसप्पिणी उत्सत्पिणी।। १६४. *पूदगल परावर्तन तिके, असंख्याता हो होवै तिण मांहि । १६४. असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, एक पुद्गलपरावर्त विषे, कालचक्र हो अनंता हुवै ताहि ॥ १६५. दस कोड़ाकोड़ सागर तणो, अवसप्पिणी हो काल होवै एक । १६५. दशभिः कोटीकोटीभिरद्धापल्योपमानामेकं सागरोपमं दस कोडाकोड़ सागर तणो, उत्सप्पिणी हो काल एक संपेख। दशभिः सागरोपमकोटीकोटीभिरवसप्पिणी उत्सप्पिण्य प्येवमेव । (वृ० प० ४०३) *लय : वीर सुणो मोरी वीनती थ०८,०६, ढा० १५८ ४६७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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