Book Title: Bhagavati Jod 02
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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१७८. प्रथम समय सर्व-बंध, इम सर्व-बंध नों अंतरो। १७८. प्रथमसमये च सर्वबन्धकोऽसाविति सर्वबन्धयोस्त्रिदोय क्षल्लक भव संध, तीन समय करि ऊण जे ॥
समयोने द्वे क्षुल्लक भवग्रहणे अन्तरं भवत इति ।
(वृ० प० ४०४) १७६. *वनस्पती सर्व-बंध नों, उत्कृष्टो हो असंख्यातो काल । १७६. उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं--असंखेज्जाओ ओस्सप्पि
असंख्याती अवसप्पिणी, असंख्याती हो उत्सप्पिणी न्हाल । णीओ उम्सप्पिणीओ कालओ, १८०. क्षेत्र थकी कहियै हिवै, असंख्याता हो लोकाकाश प्रदेश। १८०. खेत्तओ असंखेज्जा लोगा, एवं देसबंधंतरं पि उक्कोइता कालचक्र जाणवो, देश-बंध नों हो एवं चेव कहेस ।। सेणं पुढविकालो।
(श० ८।३८४) सोरठा १८१. वनस्पती नों ताहि, उत्कृष्ट अंतर सर्व-बंध । १८१. 'उक्कोसेण' मित्यादि, अयं च पृथिव्यादिषु कायस्थितिपृथ्वी प्रमुख मांहि, कायस्थिति अद्धा जितो।।
काल:
(वृ० प० ४०४) १८२. देश बंधंतर एम, एहवू पाठ मझे कह्य। १८२, १८३. 'एवं देसबंधंतरंपि' त्ति यथा पृथिव्यादीनां ___ तास न्याय धर प्रेम, वृत्ति थकी कहिये अछ ।।
देशबन्धान्तरं जघन्यमेवं वनस्पतेरपि, तच्च क्षुल्लक१८३. पृथिव्यादिक नो जेम, देश बंधंतर जघन्य छै ।
भवग्रहणं समयाधिक।
(वृ० प० ४०४) वनस्पती नों एम, खड्डाग भव समयाधिकं ॥ १८४. वनस्पती भव छह, देश-बंध करतो मरी ।
पृथिव्यादिक हुवै तेह, खुड्डाग भव जीवी वलि ।। १८५. वनस्पती ते होय, सर्व-बंध पहिलै समय ।
द्वितीय देश-बंध जोय, समयादिक भव क्षुल्लक इम ।। १८६. उत्कृष्ट पृथ्वी-काल, तरु देश-बंध अंतरो । १८६. उत्कर्षेण वनस्पतेर्देशबन्धान्तरं 'पृथिवीकाल:' पृथिवीन्याय पूर्ववत न्हाल, काल असंख्याता तणो।
कायस्थितिकालोऽसंख्यातावसप्पिण्युत्सप्पिण्यादिरूप इति ।
(वृ०प० ४०४) १८७. *हे भदंत ! बहु जीव नैं, औदारिक नां हो देश-बंधगा कहेस। १८७. एएसि णं भंते ! जीवाणं ओरालियसरीरस्स देसबंधसर्व-बंधगा अबंधगा? कुण कूण सेती हो यावत अधिक विशेष॥ गाणं, सव्वबंधगाणं, अबंधगाण य कयरे कयरेहितो
अप्पा वा? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा? १८८. जिन कहै सर्व थोड़ा अछ, औदारिक नां हो सर्व-बंधगा सोय। १८८. गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा ओरालियसरीरस्स उत्पत्ति समय विषेज ह,
सव्वबंधगा, एक समय न हो तास काल अवलोय ॥ तेषामुत्पत्तिसमय एव भावात् (वृ० प० ४०४) १८६. अबंधगा विसेसाहिया, विग्रहगतिया हो अथवा सिद्ध विचार। १८६. अबंधगा विसेसाहिया सर्व-बंधग नी अपेक्षया, अबंधगा ते हो विसेसाहिया धार ॥ यतो विग्रहगतौ सिद्धत्वादी च ते भवन्ति, ते च सर्व
बन्धकापेक्षया विशेषाधिका: (वृ० ५० ४०४) १६०. देश-बंधगा असंखगुणा, देश-बंधग नों हो असंखगुणो छ काल । १६०. देसबंधगा असंखेज्जगुणा। (श० ८।३८५) भावना एह नी विशेष थी,
देशबन्धकालस्यासंख्यातगुणत्वात्, एतस्य च सूत्रस्य आगल कहिस हो इम टीका में निहाल ।। भावनां विशेषतोऽग्रे वक्ष्याम इति (वृ०प०४०४) १६१. अंक नव्यासी नों देश ए, एकसौ नै हो अठावनमीं ढाल । भिक्खु भारीमाल ऋषिराय थी,
. सुखदायक हो 'जय-जश' हरष विशाल ।
*लय : वीर सुणो मोरी वीनती
प.८,०६,डा०१५८ ४९६
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