Book Title: Bhagavati Jod 02
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 526
________________ ३४. ते माटै पंचेंद्री तिरि, मनुष्य विषे अवधार । देश-बंध उत्कृष्ट थी, अंतर्मुहूर्त च्यार ॥ ३५. *असुर नाग जावत सुर अनत्तर, जिम नारक तिम जाणं । णवरं जेहनें स्थिति जिका छै, तेहिज भणी पिछाणं ॥ ३६. जाव अनुत्तरवासी सुरवर, वैक्रिय तास शरीरं । सर्व-बंध नों काल समय इक, भाखै जिन महावीरं ॥ ३७. देश-बंध जघन्य इकतीस सागर, ऊणी समया तीन । उत्कृष्टी सागर तेतीसज, एक समय छ हीन । ३८. अंक नव्यासी नों देश कह्य ए, एक सौ साठमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' मंगलमाल ॥ ३५. असुरकूमार-नागकुमार जाव अणत्तरोववाइयाणं जहा नेरइयाणं, नवरं-जस्स जा ठिती सा भाणियन्वा ३६. जाव अणुत्तरोववाइयाणं सव्वबंधे एक्कं समयं । ३७. देशबंधे जहणणं एक्कतीसं सागरोवमाई तिसमयूणाई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई समयूणाई । (श० ८।३६५) ढाल : १६१ १. उक्तो वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धस्य कालः, अथ तस्यैवान्तरं निरूपयन्नाह- (वृ० प० ४०७) २. वे उब्वियसरीरप्पयोगबंधंतरं णं भंते ! कालओ केवचि चरं होइ ? गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं एक्कं समयं दूहा १. वैक्रिय तन प्रयोग-बंध, आख्यो तेहनों काल । हिव तेहनां अंतर प्रतै, कहिये वचन रसाल । जिन जी जयवंता ॥ (ध्र पदं) २. वैक्रिय-शरीर-प्रयोग-बंध नों, प्रभु ! काल थी अंतर कितनो रे? जिन कहै अंतर सर्व-बंध नों, जघन्य थी एक समय नों रे ॥ सोरठा ३. औदारिक तन जेह, वैक्रिय शरीर पाय कै । प्रथम समय में तेह, सर्व-बंधकारक थयो। ४. द्वितीये समये ताहि, देश-बंध थइ नैं मुओ। सुर तथा नारक मांहि, वैक्रिय शरीर नै विषे ॥ ५. अविग्रह उत्पन्न, प्रथम समय सर्व-बंध कहै । इम इक समय वचन्न, सर्व-बंध नों अंतरो॥ ६. उत्कृष्ट काल अनंत पिछाणी, कालचक्र अनंता जाणी। जाव आवलिका में भाग असंख, पुद्गलपरावर्त पंक ।। सोरठा ७. औदारिक तन ताहि, वैक्रिय शरीर प्रति गयो । तथा वैक्रिय मांहि, देवादिक में ऊपनों॥ *लय : चौरासी में भमतां रे ममतां लिय : समझू नर विरला ५०६ भगवती-जोड़ ३. औदारिकशरीरी वैक्रियं गतः प्रथमसमये सर्वबन्धकः (वृ० प० ४०७) ४. द्वितीये देशबन्धको भूत्वा मृतो देवेषु नारकेषु वा वैक्रियशरीरिषु (वृ० प० ४०७) ५. अविग्रहेणोत्पद्यमानः प्रथमसमये सर्वबन्धक इत्येवमेकः समयः सर्वबन्धान्तरमिति (वृ० प० ४०७) ६. उक्कोसेणं अणंतं कालं-अणंताओ जाव (सं० पा०) आवलियाए असंखेज्जइभागो। ७. औदारिकशरीरी वैक्रियं गतो वैक्रियशरीरिषु वा देवादिषु समुत्पन्नः (वृ०प०४०७) Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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