Book Title: Bhagavati Jod 02
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 516
________________ दूहा १३८. सर्व-बंध नों अंतरो, जघन्य क्षल्लक भव दोय । तीन समय ऊणो कह्यो, तास न्याय हिव जोय ॥ १३९. जे तीन समया विग्रह करिनें, एकेन्द्रियपणुं लह्य। अनाहारक बे समय धुर, वाट वहितां ते थयु ॥ १४०. समय तृतीये सर्व बंधक, क्षल्लक भव ऊणो तदा । जीवितव्य भोगवी मैं ते, मरण पाम्यो छै यदा॥ १४१. पछै नोएकेंद्रिय ते, बेंद्रियादिक त्रसपणें । इक क्षुल्लक भव ग्रहणजीवी, मरण पाम्यो छै तिणें ॥ १४२. अविग्रह गति एकइंद्रिय, वली आवी ऊपनों। इम प्रथम समये सर्व-बंधक, तेह भव नों नीपनों॥ १४३. इम सर्व-बंधक अ. जे वलि, सर्व-बंध नों अंतरो। तीन समया ऊण जे, बे क्षल्लक भव भाख्यो खरो॥ १३८. यत् सर्वबन्धान्तरं तज्जघन्येन द्वे क्षुल्लकभवग्रहणे ___ त्रिसमयोने, कथम् ? (वृ० प० ४०३) १३६. एकेन्द्रियस्त्रिसमयया विग्रहगत्योत्पन्नस्तत्र च समय द्वयमनाहारको भूत्वा, (वृ० प० ४०३) १४०. तृतीयसमये सर्वबन्धं कृत्वा तद्नं क्षुल्लकभवग्रहणं जीवित्वा मृतः (वृ० ५० ४०३) १४१. अनेकेन्द्रियेषु क्षुल्लकभवग्रहणमेव जीवित्वा मृतः । (वृ० प० ४०३) १४२. अविग्रहेण पुनरेकेन्द्रियेष्वेवोत्पद्य सर्वबन्धको जात: (वृ० प० ४०३) १४३. एवं च सर्वबन्धयोरुक्तमन्तरं जातमिति (वृ० प० ४०३) १४४. उत्कृष्टो जे अंतरो, सागर दोय हजार । १४४. उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमन्भसंख्याता वर्ष अधिक छ, तसु हिव न्याय विचार ।। __ हियाई' ति, कथम् ? (वृ० प० ४०३) १४५. अविग्रह गति एकइन्द्रिय, ऊपनो धुर समय ही। १४५. अविग्रहेणकेन्द्रियः समुत्पन्नस्तत्र च प्रथमसमयं सर्वसर्व बंधक थइ वरस, बावीस सहस्र तिहां रही। बन्धको भूत्वा द्वाविंशति वर्षसहस्राणि जीवित्वा (वृ० प० ४०३) १४६. मरी त्रस में ऊपनों, इह उदधि दोय हजार ही। १४६. मृतस्त्रसकायिकेषु चोत्पन्न: तत्र च संख्यातवर्षावर्ष संख्या अधिक ए त्रस-काय स्थिति उत्कृष्ट ही। भ्यधिकसागरोपमसहस्रद्वयरूपामुत्कृष्टत्रसकायिककायस्थितिमतिवाह्य (वृ० प० ४०३) १४७. वलि इकेंद्रिय विषे उपनों, सर्व-बंधक ते थयो । १४७. एकेन्द्रियेष्वेवोत्पद्य सर्वबन्धको जात इत्येवं सर्वबन्धत्रसपणे बिच जे रह्यो, उत्कृष्ट अन्तर ते कह्यो। योर्यथोक्तमन्तरं भवति । (वृ० प० ४०३) १४८. जे सर्व-बंधज समय-हीनज, एकेंद्रिय पहिलै भवै । १४८. सर्वबन्धसमयहीनएकेन्द्रियोत्कृष्टभवस्थितेस्त्रसकायउत्कृष्ट भवस्थिति नै विषे, प्रक्षेप कीधां पिण हवै॥ स्थितौ प्रक्षेपणेऽपि, (वृ० प० ४०३) १४६. संख्यात स्थानज तणां जे, वलि भेद संख्याता सही। १४६. संख्यातस्थानानां संख्यातभेदत्वेन संख्यातवर्षाभ्यधिकते भणी वर्ष संख्यात अधिका, कह्या तेह विरुध नहीं। त्वस्याव्याहतत्वादिति (वृ० प० ४०३) १५०. *देश-बंध नों अंतरो, जघन्य क्षल्लक भव हो अधिको समयो एक। १५०. देसबंधंतरं जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं, उत्कृष्ट बे सहस्र उदधि छ, वर्ष संख्याता हो कह्या अधिक विशेख॥ उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमब्भ हियाई (श० ८।३८३) सोरठा १५१. एकेंद्रिय कहाय, देश-बंध करतो मरी । १५१. एकेन्द्रियो देशबन्धकः सन् मृत्वा द्वीन्द्रियादिषु क्षुल्लकबेंद्रियादिक मांय, खुड्डाग-भव जीवी वलि ॥ भवग्रहणमनुभूय (वृ० प० ४०३) 'लय : पूज मोटा भांजे तोटा *लय : वीर सुणो मोरी वीनती ४६६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational ain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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