Book Title: Bhagavati Jod 02
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सोरठा २६. बे सौ छप्पन जाण, इतली आवलिका तणो।
खड्डाग भव पहिछाण, अल्प आउखो एह छै ।।
३०. पैंसठ सहस्र सुजोय, वली पंच सय तीस षट ।
खुड्डाग भव ए होय, अंतर्मुहर्त नै मझे।
३१. उस्वास निःस्वास मांय, जाझा सतरै क्षल्लक भव ।
तास अंश कहिवाय, तेरसौ पंचाणूए॥
वा०-इहां उक्त लक्षण 'पैसठ हजार पांच सौ छत्तीस' एक मुहर्त गत क्षुल्लक-भव ग्रहण-राशि नै ३७७३ एक मुहर्तगत उस्वास-राशि नों भाग दीधां जेतला आवै, तेतला एक उस्वास में क्षुल्लक भव हुवे अन शेष रहै ते अंश राशि हुवै।
२६. दोन्नि सयाई नियमा छप्पन्नाई पमाणओ होति । __ आवलियपमाणेणं खुड्डागभवग्गहण मेयं ।।
(वृ० प० ४००) ३०. पणसट्ठि सहस्साई पचेव सयाई तह य छत्तीसा। खुड्डागभवग्गहणा हवंति अंतोमुहुत्तेणं ।।
(वृ० ५० ४००) ३१. सत्तरस भवग्गहणा खुड्डागा हुंति आणुपाणंमि । तेरस चेव सयाई पंचाणउयाइं अंसाणं ।।
(वृ० प० ४००, ४०१) वा० - इहोक्तलक्षणस्य ६५५३६ मुहूर्तगतक्षुल्लकभवग्रहणराशेः सहस्रत्रय-शतसप्तकत्रिसप्ततिलक्षणेन ३७७३ मुहुर्तगतोच्छ्वासराशिना भागे हृते यल्लभ्यते तदेकत्रोच्छ्वासे क्षुल्लकभवग्रहणपरिमाणं भवति, तच्च सप्तदशः, अवशिष्टस्तूक्तलक्षणोंऽशराशिर्भवतीति, अयमभिप्रायः--येषामंशानां त्रिभिः सहस्रैः सप्तभिश्च त्रिसप्तत्यधिकशतैः क्षुल्लकभवग्रहणं भवति तेषामशानां पञ्चनवत्यधिकानि त्रयोदशशतानि अष्टादशस्यापि क्षुल्लकभवग्रहणस्य तत्र भवन्तीति । तत्र यः पृथिवीकायिकस्त्रिसमयेन विग्रहेणागतः स तृतीयसमये सर्वबन्धकः शेषेषु देशबन्धको भूत्वा आक्षुल्लकभव ग्रहणं मृतः, मृतश्च सन्नविग्रहेणागतो यदा तदा सर्वबन्धक एव भवतीति, एवं च ये ते विग्रहसमयास्त्रयस्तैरूनं क्षुल्लकमित्युच्यते।
(वृ० ५० ४०१)
इहां ए अभिप्राय-६५५३६ नै ३७७३ नों भाग दीधा १७ तो पूर्ण आव अनै अठारमा नां १३६५ अंश रहै । तिण कारण एक श्वासोश्वास में १७ भव झाझरा कहिये ।
तिहां जे ए पृथ्वीकायिक तीन समय विग्रहे करी आयो, ते त्रीजे समये सर्व बन्धक शेष नै विषे देश-बन्ध थइ नै क्षुल्लक भव ग्रहण अभिव्यापी मूओ थको अविग्रहे करी आव्यो जिवार, तिवारै सर्व बन्धक ईज हुई। इम जे विग्रह समय तीन ते ऊणो क्षुल्लक कहिये । ३२. तिहां थी पृथ्वीकाय, तीन समय विग्रह करी ।
आयो तास कहाय, तीजे समये सर्व-बंध ॥ ३३. शेष समय रै माय, देश-बंध भव क्षलक में ।
मूओ थको कहिवाय, त्रिसमयूणज क्षलक भव ।। ३४. बावीस सहस्र सुसंध, उत्कृष्ट स्थिति पृथ्वी तणी ।
प्रथम समय सर्व-बंध, शेष समय छै देश-बंध ।। ३५. देश-बंध इण न्याय, वर्ष बावीस हजार ते ।
समय ऊण कहिवाय, पृथ्वीकाय तणोज ए॥ ३६. *सर्व विषे सर्व बंध, इम कहिये हो इक समय प्रमाण ।
देश बंध नों अर्थ ए, हिव आगल हो सुणज्यो वखाण ॥ ३७. वैक्रिय शरीर जेहनें नहीं, अप तेउ हो वनस्पति विकलिंद । तास औदारिक तन तणो,
प्रयोग-बंध हो तेहनी स्थिति कथिद । *लय : वीर सुणो मोरी वीनती
३६. एवं सब्वेसि सव्वबंधो एक्कं समयं,
३७,३८. देसबंधो जेसि नत्थि वेउब्बियसरीरं तेसि जहण्णेणं
खुड्डागं भवरगहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं जा सा ठिती सा समयूणा कायव्वा, अयमर्थः-अप्तेजोवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां
४८८ भगवती-जोड़
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