Book Title: Bhagavati Jod 02
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 504
________________ द्रहा १३. जीव सवीर्यपणे करी, सजोगपणां करि धार । सद्व्यपणे करि वलि, एम कह्या वृत्तिकार ॥ १४. प्रथम वीर्य सजोग ते, सदद्रव्य करिकै ताय । अर्थ धर्मसी इम कियो, ए बिहुँ बोल कहाय ॥ १५. *तथा प्रमाद-प्रत्यय कारण करि, वलि कमें करि कहिये। १५. पमादपच्चया कम्मं च एकेंद्री जाति प्रमख कर्म ते, उदयवत्ति संग्रहिये ।। १६. जोगं च कहितां जोग कायादिक, वलि भव तिर्यंचादि । १६. जोगं च भवं च आउयं च वलि आउखो तिर्यंचादिक नों, उदयवति इम लाधि। १७. ए वीर्य सजोग प्रमुख पद आश्री, औदारिक तनु ताह्यो। १७. पडुच्च ओरालियसरीरप्पयोगनामकम्मस्स उदएणं प्रयोग नाम कर्म उदय करीने, औदारिक-तनु-प्रयोग बंधायो॥ ओरालियसरीरप्पयोगबंधे। (श० ८।३६६) वा०-वीर्य ते वीर्यांतराय क्षयादिके कीधी शक्ति, योग ते मन प्रमुख योग, ते वा०-वीरियसजोगसद्दव्वयाए' त्ति वीर्य-वीर्यान्तसहित वधै ते सयोग कहिये सद्-विद्यमान, द्रव्य तथाविध पुद्गल जेह जीव नै तेह रायक्षयादिकृता शक्ति: योगा:-मन:प्रभृतयः सह योगसद्रव्य कहिये । वीर्य-प्रधान सयोग ने वीर्य सयोग, तेहिज जे सद्रव्य तेहनों भाव वर्तत इति सयोगः सन्ति विद्यमानानि द्रव्याणितिण करी । एतलै सवीर्यपण सजोगपणे सद्रव्यपण जीव नै । तथा 'पमादपच्चय' त्ति तथाविधपुद्गला यस्य जीवस्यासौ सव्व्यः बीर्यप्रमाद-प्रत्यय थकी, प्रमाद लक्षण कारण थकी। 'कम्मं च' त्ति-कर्म ते एकेंद्रिय जात्या प्रधान: सयोगो वीर्यसयोग: स चासौ सद्व्यश्चेति दिक उदयवत्ति । 'जोगं च' त्ति--जोग ते कायजोगादिक । 'भवं च' त्ति-भव ते विग्रहस्तद्भावस्तत्ता तया वीर्यसयोगसद्व्यतया, तिथंच भवादिक अनुभूयमान । 'आउयं च' त्ति-आउखो ते तिथंच आयुषादिक उदय सवीर्यतया सयोगतया सद्व्यतया जीवस्य, तथा वत्ति । पडच्च आश्रयी नै 'ओरालिय' ति-औदारिक शरीर प्रयोग संपादक जे नाम 'पमायपच्चय' त्ति 'प्रमाद-प्रत्ययात्' प्रमादलक्षणकार णात् तथा 'कम्मं च' त्ति कर्म च एकेन्द्रिय-जात्याते औदारिक शरीर प्रयोग नाम, ते कर्म नां उदय करीनै औदारिक शरीर प्रयोग दिकमुदयत्ति, 'जोगं च' ति योगं च' काययोगादिक' नाम । ते कर्म नां उदय करीनै औदारिक शरीर-प्रयोग-बंध हुई, इति शेष । 'भवं च' त्ति भवं च' तिर्यग्भवादिकमनुभूयमानम् ए पूर्वे कह्या ते सवीर्य सजोग सद्व्यतादिक पद औदारिक शरीर प्रयोग नाम 'आउयं च' ति 'आयुष्कं च' तिर्यगायुष्काद्युदयत्ति कर्म उदय नां विशेषणपणे वखाणवा । पडुच्च' ति 'प्रतीत्य' आश्रित्य 'ओरालिए' त्यादि औदारिकशरीरप्रयोगसम्पादकं व तदौदारिकशरीरप्रयोगनाम तस्य कर्मण उदयेनौदारिकशरीरप्रयोग बन्धो भवतीति शेषः, एतले जीव नै सवीर्यपण सजोगपण सद्दव्यपण तथाविध औदारिक शरीर प्रयोग एतानि च वीर्यसयोगसव्व्यतादीनि पदान्यौदारिकपुद्गल नै हेतुभूतपण करि तथा प्रमाद-प्रत्यय तथा कर्म एकेंद्रिय जात्यादिक उदयत्ति, शरीरप्रयोगनामकर्मोदयस्य विशेषणतया व्याख्येजोग काया-जोगादिक, भव तिर्यंचादिक, अनुभूयमान ते भोगवतां छता, आउखो तिर्यच यानि । आउखादिक उदयत्ति, एतलां नैं आश्रयी नै औदारिक शरीर प्रयोग-बंध ऊपजै । वीर्यसयोग सद्रव्यता कारणभूत है जैहने विषे, एहवो विवक्षित कर्मोदय इत्यादि वीर्यसयोगसव्यतया हेतुभूतया यो विवक्षितकर्मोप्रकार थी अथवा औदारिक-शरीर प्रयोग बन्ध में ते स्वतंत्र रूप में कारणभूत बणे दयस्तेनेत्यादिना प्रकारेण, स्वतंत्राणि वैतान्यौदारिकतिहां मूल प्रश्न तो औदारिक शरीर प्रयोग बन्ध किण कर्म ना उदय थी हवे ? ए छ। शरीरप्रयोगबन्धस्य कारणानि, तत्र च पक्षे यदौदारिक *लय : सस्नेहा भवियण ! परम नाण खप कीजिये १. इस ढाल में गाथा ११ से १६ तक प्रायः गाथाओं में मूल पाठ का विस्तार वृत्ति के आधार पर किया गया है, किन्तु वृत्ति का वह अंश यहां उद्धृत नहीं किया गया है । इसका कारण इन गाथाओं से आगे वार्तिका में उस अंश को अविकल रूप से उद्धृत कर दिया गया है। ४८४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582