Book Title: Bhagavati Jod 02
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 478
________________ ७. सज्झाय भूमि वैसवूं सेज्या वध यष्ट्यादिक करि हर्णे, जाचण आक्रोसे | अलाभ जेह ॥ सतकार । 5. रोग अनें तृण फर्श नुं, जल मल नें प्रज्ञा ते मति बुद्धि नों, हरष सोग परिहार ॥ ६. ज्ञानमत्यादि विशिष्ट लही, नहि करिवू तसु मान । तास अभावे दीन नहि. ग्रंथांतरे अज्ञान । १०. दर्शण ते सम्यक्त्व विषे, शंक कंख परिहार | ए बावीस परीसहा, सहिवा हरष अपार ॥ *जय जय ज्ञान जिनेन्द्र नौ ॥ (ध्रुपदं ) ११. ए बावीस परीसहा, किती कर्म प्रकृति मांव, प्रभुजी ! समवतरै वर्ते अछे ? तब भाखे जिनराय, प्रभुजी ! १२. च्यार कर्म प्रकृति नैं विषै, समवतार ते आय, हो गोयम ! ग्यानावरणी वेदनी विषे मोह अंतराय रे नांव, हो गोयम ! १३. ज्ञानावरणी कर्म नें विषे, किता परिसह वर्त्तत ? जिन कहै दोय परीसहा प्रज्ञा अनाग पामंत ॥ सोरठा १४. प्रज्ञा परिसह जाण, मति ज्ञानावरणी विषे । समवतरे से आण तास न्याय इम वृत्ति में ॥ १५. प्रज्ञा बुद्धि] अभाव, ज्ञानावरणी उदय श्री । दैन्य मान नहि साव, ते चरित्र मोह क्षयोपशमादि थी ॥ या बुद्धि नहीं पामी तेह तो ज्ञानावरणी कर्म नो उदय अनं बुद्धि नहीं पामवा थी दीनपणों नहीं करवो, बुद्धि पामवा थी मान नहीं करवो, ते चारित्र मोहणी कर्म नो क्षयोपशम उपशम क्षायक छै । *लय : शिवपुर नगर सुहामणो १. यहां अज्ञान परीषह ज्ञान परीषह के स्थान में है । भगवती में मूल पाठ में ज्ञान परीषह ही रखा गया है। उत्तराध्ययन में अज्ञान परीषह का उल्लेख है । संभव है जयाचार्य ने उसी संस्कार से यहां अज्ञान परीषह लिख दिया । अन्यथा इससे पहले गाथा 8 और आगे गाथा १६ में ज्ञानपरीषह का ही ग्रहण किया है । ४५८ भगवती जोड़ Jain Education International ७. निसीहियापरीसहे, सेज्जापरीस हे, अक्कोसपरीसहे, महपरोस, जायगापरीस अलाभपरीस वधो वा यष्ट्यादि --- नैषेधि की स्वाध्यायभूमिः ताडनं । ( वृ० प० २९० ) ८. रोगपरीसहे, तणफासपरीसहे, जल्लपरीसहे, सक्कारपुरस्कारपरीसहे पण्णापरीसहे प्रज्ञा मतिज्ञानविशेषस्तत्परिषहणं च प्रज्ञाया अभावे उद्वेगाकरणं तद्भावे च मदाकरणं । ( वृ० प० ३१०) ६. नाणपरीसहे ज्ञानंमत्यादि तत्परिषहणं च तस्य विशिष्टस्य सद्भावे मदवर्जनमभावे च दैन्यपरिवर्जनं, ग्रन्थान्तरे त्वज्ञानपरिषह इति पठ्यते । ( वृ० प० ३६० ) १०. सपपरीष ( श० ८३१६ ) दर्शनं तत्त्वश्रद्धानं तत्परिषहणं च जिनानां जिनोक्तसूक्ष्मभावानां चाश्रद्धानवर्जनमिति । ( वृ० प० ३६० ) ११. एए णं भंते! बावीसं परीसहा कतिसु कम्मपगडीसु समोयरंति ? १२. गोपी ममोयरंति तं जहा नाणावरणिज्जे पेत्रे, मोह, अंतराइए (श० ८।३१७) १३. नाणावरणिज्जे णं भंते! कम्मे कति परीसहा समोयरंति ? For Private & Personal Use Only יי गोयमा ! दो परीसहा समोयरंति, तं जहा - पण्णापरीस नागपरीस व (श० ३१०) १४. प्रज्ञापरीषहो ज्ञानावरणे - मतिज्ञानावरणरूपे समवतरति । (40 40 420) १५. प्रज्ञाया अभावमाश्रित्य तदभावस्य ज्ञानावरणोदयसम्भवत्वात् यत्तु तदभावे दैन्यपरिवर्जनं तत्सद्भावे च मानवर्जनं तच्चारित्रमोहनीयक्षयोपशमादेरिति । ( वृ० प० ३६० ) www.jainelibrary.org

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