Book Title: Bhagavati Jod 02
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 481
________________ ४७. *चरिया वे ते समय में, निसीहिया वेदै नांहि । निसीहिया वेदं ते समय, चरियां न वेदे ताहि ॥ सोरठा ४८. चरिया का विहार, निसीहिया मास कल्पादि विवक्त उपाय सार, बेसे सरकायादि युत । हित ।। ४६. विहार अने अवस्थान, परस्पर ए बिहुं तनुं । विरोध थी पहिछान, एक काल नहि संभवे ॥ ५०. अथ सेज्या पिण ख्यात, निसीहिया परिसह नीं परै । चरिया र संघात, ए पिण विरोध हुवै अछे || ५१. तो चरिया हुने तिवार, सेज्जा निखीहिया नहि हुवे । तो उत्कृष्ट विचार, वेद एगुणवीस इम ॥ प्रति । तदा ॥ ५२. उत्तर तसु अवलोय जे ग्रामादि गमन प्रवृत्त खतेज जोय, जावा मांड्यु पिण ५३. कोयक उत्सुकथीज, चर्या थी नहि निवत्र्यो । तसु परिणामेहीज, वीसामो रास्ते लिये ॥ ५४. भोजनादिक ने अर्थ, अल्प काल सेज्या विषे । बस तास तदर्थ तदा विरोध न वि तणो ॥ ५५. गमन विषे सुविचार, अल्प काल सेज्जा रहे वेदे चरिया सार, सेज्जा पिण वेदं तदा ॥ ५६. तत्व की सुविचार, चर्या परिसह ने विधे असमाप्त थी धार, सेज्या नां आश्रयण थी ॥ ५७. जो यह विध ए हुंत, तो षड् विध बंधक किम कह्यो । जे समय चरिया वेदंत, सेज्या नहि वेदै तदा ॥ करि । विषे ॥ ५६. तर उत्तर से एम, पढ विध बंधक ने कहा । मोह अंश अल्प तेम, प्रवल मोह नं उदय नहि । ५१. सर्व कार्य मोहि, उत्सुक भाव अभाव रै सेज्जा काले ताहि बसें सेज्या मे ६०. नवमा गुण जिम जेह, सेज्या वेदे तिण उत्सुक भाव करेह, चरिया प्रति वेदं ६१. चर्या जब वेदंत, सेज्या नहि वेदै तदा । बिहुं समकाल नहिं हुंत, ए बिहुं तणो विरोध इम ॥ ६२. ते माटे इम जोय, जे सप्त कर्म बंधक तणें । परिया निसोहिया दोय, एक समय वेदं न बिहं ॥ *लय : शिवपुराण नगर सुहामणो समय । नयी ॥ Jain Education International ४७. जं समयं चरियापरीसह वेवेद, नो तं समयं निसीहियापरीसहं वेदेइ, जं समयं निसीहियापरीसहं वेदेइ नो सं समयं परियापरीसहं वेदेश | (० ०३२३) ४८. तत्र चर्या - ग्रामादिषु संचरणं नंषेधिकी चग्रामादिषु प्रतिपन्नमासकल्पादेः स्वाध्यायादिनिमित्तं शय्यातो विविक्तत रोपाश्रये गत्वा निषदनम् । ( वृ० प० ३९१ ) ४१. एवं चानयोविहारावस्थानरूपत्वेन परस्परविरोधान्नैकदा सम्भवः । ( वृ० प० ३६१ ) ५०. अथ नैषेधिकीवच्छय्याऽपि चर्यया सह विरुद्धेति (बु० [१०] १९१) ५१. न तयोरेकदा सम्भवस्ततश्चैकोनविंशतेरेव परीषहाणामुत्कर्षयेकदा वेदनं प्राप्तमिति । ( वृ० प० ३९१) ५२-५४ नेवं यतो प्रामादिगमनप्रवृत्तौ यदा कश्चिदत्गु क्यादनिवृत्ततत्परिणाम एवं विधामभोजनाय मित्रशय्यायां वर्त्तते तदोभयमप्यविरुद्धमेव । ( वृ० प० २२१) ५६. तत्त्वतश्चर्याया असमाप्तत्वाद् आश्रयस्य चाश्रयणादिति ( वृ० प० ३२१) ५७. चेवं तहि वयं पवित्रवन्धकमाथित्य वक्यति-जं समयं चरियापरीसह एति नो तं समयं सेज्जापरीसह एड इत्यादीति । ( वृ० प० ३९१ ) ५८. अत्रोच्यते, षड्विधबन्धको मोहनीयस्याविद्यमान कल्पत्वात् ( वृ० प० ३९१) ५९. सर्वोत्सुक्याभावेन व्यायामेव वर्त्तते । ( वृ० प०३११) ६०, ६१. नतु बादरगवदीत्नवेन विहारपरिणामाविच्छेदाश्चर्यायामपि अतस्तदपेक्षया तयोः परस्परविरोधाचुगपदसम्भव: ( वृ० प० ३९१ ) ६२. ततश्च साध्वेव 'जं समयं चरिए' त्यादीति For Private & Personal Use Only ( वृ० प० ३९१) श०८, उ०८, डा० १५२ ४६१ www.jainelibrary.org

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