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पूर्व पीठिका
१७वीं शताब्दी में जितने व्यापक रूप से हिन्दी कृतियां लिखी गयी उत्तनी कृतियों इसके पूर्व किसी शताम्बी में भी नहीं लिखी जा सकी । इस शताब्दी में देश के सभी प्रदेशों में हिन्दी रचनायें लोकप्रिय बन रही थी । प्राकृत एवं संस्कृत ग्रन्थों के हिन्दीकरण का यह युग था । बन कवियों का इस मोर विशेष ध्यान जा रहा था । पाण्डे रुपचन्द इसी शताब्दी के कवि थे जिन्होंने समयसार कलश पर हिन्दी ख्वा टीका लिखी थी । बैन कवि स्वतन्त्र रूप से भी काव्य रचना करते तथा गीत, रालो एवं काश्य की अन्य विधानों के माध्यम से छोटी बड़ी रचनाएं लिखते रहते थे । इस शताब्दी में होने वाले ब्रह्म रायमल्ल, भ. प्रसापकीति का अकादमी के प्रथम पूष्प में भद्रारक रत्नकीति, कुमचन्द एवं उनके समकालीन ६८ अन्य कवियों का। चतुर्थ पुष्प में घुलाखीचन्द, बुल गोदावं इमान से प्रति दिनों का हुने भाग में परिचय दिया जा चुका है। इनके अतिरिक्त अभी और भी पचासों कवियों का परिचय अवशिष्ट है जिन्होंने हिन्दी साहित्य के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था।
__ इस शताब्दी में होने वाले कवियों में कवयित्री "अजीतमति' का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । किसी जैन कवयित्री की यह उपलब्धि विगत ५०-६० वषों में की गयी सतत खोज के बाद हो सकी है ! जंन हिन्दी कवयित्रियों में दिगम्बर समाज में चम्पाबाई का नाम प्राता है जो करीब १०० वर्ष पूर्व टोंग्या परिवार में देहली में हुई थी और जिनकी एक मात्र कृति 'चम्पा शतक' का मैंने सम्पादन करके प्रकाशित करवाया था। प्रवेताम्बर समाज की कवयत्रियों में हरकूबाई, (सं. १८२०) इन साजी (सं. १७) सरुपा बाई, जडावजी एवं भूर सुन्दरी जैसे नाम और प्राप्त हैं लेकिन ये सब कवयित्रियां हर बाई एवं हुलसाजी के अतिरिक्त एक शताब्दी पूर्व ही हुई हैं। इसके अतिरिक्त जहां हिन्दी जन कवियों की संख्या ४०० से कम नहीं होगी वहां महिला कवियों की यह संख्या एक दम नगण्य है इससे पता चलता है कि महिला समाज में कभी साहित्यिक चेतना नहीं रही या फिर उनके द्वारा निबद्ध साहित्य की उपेक्षा की गयी और उसको संग्रहणीय नहीं समझा गया। इसलिये १६वीं-१७वीं शताब्दी में होने वाली कवयित्री अजीतमति से हिन्दी साहित्य नि:संदेह गौरवान्वित हुआ है।