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बाई अजीतमसि एवं उसके समकालीन कवि
जो रे जीव मन ठोडन पावि, ज्यांहा जायि त्यांहा भागा प्रावि । एक समो घेतन लिलावि, जाहां जापि त्याहा बोन्ही न प्रावि ॥११॥ रे जीव मन कु काहि न होडडि, इहु मन हम सुफी फरी मंडि । एक समो अपरिग घरि जाग्या, मन का विकलप सघला भाग्या ॥१२।। रे जीव उबका काहि मारि, जे बढि सो घट मांथा हारि । ढूक तांड च्योहो दीसि आया, बिण दुदि घर भीतर पाया ॥१६॥ रे जीव ज्ञान काहांति जाण्या, पर घर जूयि खरा भूलाण्या । म्यान नयरण लेइरू दिपेसे, बिग बाती घर भीतर देखे ॥१४॥ रे तता परम सृपिस्खे, जायि काल बहुतो न देखे । एक समो अपणि घरि माया, अनंतकाल जे बाद जमाया ॥१५॥ अनाद का विर विक्रअप भाई, थार विकल्प कु रहा समाइ । शीर वीकलाप कु जो मन लादि, निरविक्कलप सामि मा पावि ॥१६||
प्रातम दीपक राबको पेखे, बिग बाती को नहीं देखे। अप्पा अप्प ग्यान करी ध्याथा, विरा बाती का दीपक पाया ।। १७
रे जीव ध्यान धरे सब वोइ, ज्ञान विणा नयि जागा सको। जो पंछी तजि करि वीचारा, घर की जोत लावेते सारा ॥१11 घर की जोत न जारिग कोइ, अंग पट्यो पग न्यान न होइ । रे जीव फरी फरी बिकलप घ्यावि, विकलए ध्यानि न्यान न पावि ॥१६॥ एह विकला जे जीव का नाहि, निर पिकलप कु का न जाहि। जेह जोगी जोगीश्वर जाण्या, उसका गुण मही मांहि विखाण्या ।।२०।। बाती दीपक सबको जागि, विरण बानी कोइ न पिछाणि । सो अप्पा सो अपमु ध्यावि, बिण बाती का दीपक पावि ॥२१॥ मूली रह्मा जग मां सहु कोइ, पर की दृष्टि जानन होइ। स्वकीय ज्ञान दृष्टि वारी गन्ने, पर की दृष्टि कु सेहेचे देख्ने ।।२२।! एह मन मेरो बोहोत डोलाणो, फरी फरी जो विलगे भूलागो । बहु अकल च्योहो गति फरी आबि, अप्पा विरण कही सुख न पावि ॥२३॥ ₹ जीव मनति प्रती ललचायो, फरी फरी भमति वह दुःख पायो । फरी फरी भमी पोहो जुगमि प्रायो, अपगा पः किरा ोड़ न पायो ।।२।।