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बाई अजीतमति
जो जूयि तो प्रप्पा जूयि, पर कि जूपि जान न होवि । पर का उजवस या त धोबि, अपणा मैल कार नहीं सोहोवि ॥७॥
बाई अजीतमती ने इसी अध्यात्म छंद में आगे कहा है कि यदि तेरा मन झगडालू है तो दूसरों के झगड़ों में जाकर क्यों पड़ता है । दूसरों के झगड़ों में तुझे किञ्चित् भी स्थान अर्थात् सद्गति प्राप्त होने वाली नहीं है, क्योंकि तू अपना झगड़ा निपटाने अथवा शांत करने के स्थान पर दूसरों का झगड़ा शांत करने में लगा हुआ है।
यह बत्ती बाला दीपक सभी को देखता है किन्तु यदि उसमें बती न हो उसे कोई नहीं देख सकता लेकिन यह प्रात्मा तो बिना बसी का ही दीपक है जो स्वयं सो सबको देख लेता है और दूसरा इसे कोई नहीं देख पाता । वह स्वयं ही अपने जान के द्वारा अपने को देख सकता है। अपनी इसी बात को कवयित्री ने आगे के पश्च में फिर दुहराया है और जो अधिक स्पष्ट है
माती बीपक सबको जाणि, विण बातो कोई म पिछागि। सो पप्पा सो अप्पसु ध्यावि, विण बातों का बीपर याच ॥२१॥
मानव का यह मन बहुत ही भटकता है स्थिर रहना तो मानो जानता ही नहीं । अधिक डोलने से वह अपना मागं ही मूल गया है। मनेक जातियों में वह फिर चुका है जन्म ले चुका है. लेकिन अभी तक उसे सद्बुद्धि नहीं आयी है क्योंकि वह आत्मा से परे रहता है और प्रात्म आम के बिना उसे सुख नहीं मिल सकता ।
एह मन मेरो बोहोत डोलायो, फरी फरी जो बिखरो भूतारणहे। मह प्रकल व्योहो गति फरीमाधि, प्रप्या पिरा कही सुन न पाधि ।।२२।।
प्रात्म ज्ञान मानव के लिये पावश्यक है। जैसे सिदालय में प्रात्मा निवास करती है उसी प्रकार शरीर में भी प्रात्मा का निवास रहता है इस प्रकार जो
१. जो झगडु मन होयि तेरा, पर कि झगडि जापि घणेरा।
पर कि झगरि ठोडम पाथि, चमार योगी उर ध्यावि ॥ ॥ २. मातम दीपक सबको बेले, विल बातो कोई नहीं देते।
प्रप्पा अप्प न्यान भरि ध्वाया, विरण बासी का बीपक पाया ॥१७॥