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श्रङ्गर
अङ्गर
मुनका,-अ० । अंगूरे खु.एक-फा० । यूवी । Uvie, यूवी पैसी Uvie passe-ले० । रेजिन्स Raisins-इं०,फ्रां०। रोजिनेन Rosinen -जर० | Monaqqa मोनक्का-हि०,३०,फा०। उलन्दंदिराक्षप्-पज़म्, उलन्दद्राच-परम्-ता० । दोपद्राक्ष-पण्डु,सन्न-दान-पंडु,पंदु,द्राक्ष पंडु-ते। मुन्तिरिङ्प-पज म्, उणङ्यि -मुन्तिरिङ्ङप. पज़म् (-परम् )-मल०। दीप दाक्षि-कना। वेल्लिचे मुद्र-पलम्, वेलिश-मुद्रका-सिं० । सबीसी, सब्यासी या तबी-ति-- सर० । बीजरहित लघु द्राक्षा-किशमिश, बेदाना-हि०, द०, फा० । काकली द्राक्षा, जाम्बुका, फलोत्तमा, लघुद्राक्षा, शुद्र द्राक्षा, निर्धा, सुवृत्ता, रुचिकारिणी, ( रसाधिका, लघुद्राक्षा)-सं। किसमिस-बं०, गु०, म० किसमिस-द्राकसुल्तानस Sultanas, रेजिन्स Raisins -इं। किशमिश, अगुल द्राख (मा० श०)फ़ा०। चिकुद्राक्षे-कना। किसमिस पंडु-ते।
नोट-पके सूखे हुए लाल अंगूर को मुनक्का और छोटे एवं बीज रहित को किसमिस तथा बड़े और काले वर्ण वाले को गोस्तनी (काली दाख ) कहते हैं । काले अंगूरोंकी काली दाखें और भूरे अंगूरों की भूरी दाखें होती हैं। चरक में केवल मीका और सुश्रत में केवल द्राक्षा के गुण का निश किया गया है। पर्वती तथा करोंदी नाम से इसके और दो अन्य भेद हैं। भाव।
एम्पेलिडोई अर्थात् द्राक्षावर्ग
(N. 0. Ampelidece ) उत्पत्ति स्थान-यह उत्तरी पश्चिमी हिमालय ( या भारतवर्ष ) अर्थात् पंजाब, काश्मीर, काबुल, बलुचिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, कन्दहार तथा फारस और यूरूप प्रभृति प्रदेशों में बहुत लगाया जाता है । हिमालय के पश्चिमी भागों में यह पाप से आप भी होता है। और
और जगह भी लगाया जाता है। संयुक्र प्रदेश के कमाऊँ, कनावर और देहरादून तथा बम्बई प्रांत के अहमदनगर और औरंगाबाद, पूना और नासिक अादि स्थानों में भी इसकी उपज
होती है। बंगाल में पानी अधिक बरसने के कारण इसकी बेल वैसी नहीं बढ़ सकती। वहाँ केवल तिरहुत और दानानगर में थोड़ी बहुत टट्टियाँ हैं।
इतिहास-द्राक्षा और मदीका नाम से अंगूर का वर्णन सुश्रुत और चरक आदि सभी प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रन्थों में मिलता है। यही दशा यूनानी तथा अरबी ग्रन्थों की है। इसकी कृषि एवं उपयोग का ज्ञान उन्हें बहुत प्राचीन काल से रहा है, और निज ग्रन्थों में अपने अपने दृष्टि कोण के अनुसार इसके उपयोग एवम् गुणधर्म के सबन्ध में उन्होंने काफी प्रकाश डाला है। जैसा कि प्रागेके वर्णन से विदित होगा। इसके द्वारा प्रस्तुत हुए मद्य के मादक प्रभाव से वे भली भाँति परिचित थे । प्रस्तु आर्यों का सोम तथा यूनानी पुराणों का प्रारम्भिक मद्य निःसन्देह स्वर्गीय अमृत था। __ भारतवर्ष में इसकी खेती कम होती थी । फल प्रायः बाहर ही से मॅगाए जाते थे । मुसलमान बादशाहों के समय में अंगूर की ओर अधिक ध्यान दिया गया। आज कल हिन्दुस्तानमें सबसे अधिक अंगूर काश्मीर में होते हैं। जहाँ ये क्वार महीने में पकते हैं । वहाँ इनकी शराब बनती है और सिरका भी पड़ता है। महाराष्ट्र देश में जो अगर लगाए जाते हैं उनके कई भेद हैं, जैसे-पाबी, फकीरो, हबशी, गोलकली
और साहेबी इत्यादि। ___ अफगानिस्तान, बिलूचिस्तान और सिंध में अंगूर बहुत अधिक और कई प्रकार के होते हैं, जैसे-हेटा, किशमिशी, कलमक, हुसैनी इत्यादि । किशमिशी में बीज नहीं होता। कंधारवाले हेटा अंग को चूना और सजीखार के साथ गरम पानी में डुबाकर आवजोश और किशमिशी को धूप में सुखा कर किसमिस बनाते हैं।
वानस्पतिक वर्णन-अंगूर की बेले काठ की रट्टियों पर चलखी हैं। इसके पत्र हाथ की श्राकृति के कुम्हदे वा नेनुए की पत्तियों से मिलते मुलते होते हैं, मानो हथेली में पाँच अंगुलियाँ लगादी गई हों । फल गुच्छों में लगते हैं।
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