Book Title: Ayurvediya Kosh Part 01
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj

View full book text
Previous | Next

Page 844
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अंसार असार āasára असार aasárah www.kobatirth.org ८०२ - o भेड़िया । ( 4 wolf.) असार राई asára-rai-अअ बार। (Polygonum bistorta.) असार दधि asara dadhi- सं० क्ली० नवनीत अर्थात मक्खन निकाले हुए दूध से जमाया हुआ दही । गुण- असार दधि ग्राही, शीतल, वातकारक हलका, विष्टम्भी, दीपन, रुचिकारक तथा ग्रहणी रोगनाशक है । भा० पू० दधि व० । असारक्का, कामन asarabacca-comm. on ई० असारून, तगर । असारा asára-सं० स्त्री० कदली वृक्ष, केला । Plantain (Musa sapientum. ) वै० निघ० । असारून asárún - अ०, लि० तगर भेद, पारसीक तगर | तुक्कर - हि० । ( Asarun Europeum) हीवेर वा जटामांसी (S.O. Valerianex.) उत्पत्ति स्थान - फ़ारस, अफ़गानिस्तान तथा भारतवर्ष । भारतवर्ष में इसका श्रायात फ़गानिस्तान से होता है । नोट - तगर, ह्रीवेर तथा जटामांसी प्रभृति एक ही वर्ग की ओषधियाँ हैं और परस्पर इनमें बहुत कुछ समानता है । श्रतएव कतिपय ग्रन्थों में इसके निश्चीकरण में बहुत भ्रम किया गया है। इसके पूर्ण विवेचन के लिए देखो - तगर वाहवे । वानस्पतिक वर्णन यह एक बूटी है जिसके पत्र लबलाब अर्थात् इश्क़पेचा के पत्र के समान होते हैं । भेद केवल यह है कि इसके पत्र क्षुद्रतर एवं अतिशय गोल होते हैं। इसके पुष्प नील वर्ण के पत्तों के बीच में जड़ के समीप होते हैं। इसके बीज बहुसंख्यक श्रौर कुसुम्भ बीजवत् होते हैं। इसकी जड़ें क्षीण, ग्रंथियुक्त और सुगंधियुक्त होती हैं । ( औषधों में यह जड़ ही काम में भाती है ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असारू प्रकृति - द्वितीय कक्षा के अंत में उष्ण व रूक्ष है । किसी किसी ने तीसरी कक्षा में उष्ण एवं द्वितीय कक्षा में रूक्ष और किसी ने तीसरी कक्षा में रूक्ष लिखा है। स्वरूप-पीताभ | स्वाद- तीक्ष्णतायुक्त वा बेस्वाद । हानिकर्त्ताफुप्फुस को । दर्प-मवेज्ञ मुनक्का । प्रतिनिधिकुलिअन एवं शुठि । मात्रा - ५ माशे । प्रधानकर्म-मस्तिष्क बलप्रद और शीत प्रकृति को ऊष्मा प्रदान करता है । गुण, कर्म, प्रयोग — इसमें काफी ऊष्मा होता है । पुत्र यह यकृदावरोधोटिक है । यह प्लीहा काठिन्य को दूर करता है; क्योंकि अ पनी उष्णता के कारण यह उसकी सख्ती के मद्दे को घुलाता हैं । इसी हेतु पुरातन कूल्हे के दर्द ( वज्डल वरिक ) एवं वात-तन्तुओं के शीत जन्य रोगों को लाभप्रद है। मूत्र एवं श्रार्त्तव का प्रवर्त्तन करता है; क्योंकि इसमें द्वावक ( तलती ) एवं विलायन ( तहलील ) की शक्ति पाई जाती है। (नफ़ो०) यह तारल्यताजनक है एवं ऊष्माको बढ़ाता है। तथा शोध एवं वायुको लयकर्त्ता, मस्तिष्क, श्रामाशय, यकृत, वाततन्तुओं, प्लीहा एवं वृक्क को बल प्रदान करता है । पित्तज एवं श्लेष्भज माहा को मल द्वारा उत्सर्जित करता तथा जीर्ण ज्वर को दूर करता और मूत्र व श्रात्तव की प्रवृत्ति करता है । म० मु० । For Private and Personal Use Only उपयुक्त औषधों के साथ वा अकेले इसका पीना अपस्मार, श्रर्हित, पक्षाघात, इस्तरखा ( वातग्रस्तता ), श्लेष्मज आक्षेप, श्रवसन्नता, मस्तिष्क एवं बोधक तन्तुनों की उष्णता एव शक्ति के लिए हितकर है । गर्भाशय सम्बन्धी शिरःशूल एवं विस्मृति को लाभप्रद । श्रान्तरिक शल प्रशामक, जलोदर, अवरोध जन्य पांडु, यकृत् एवं प्लीहा शोथ के लिए उत्तम, गर्भाशयशोधक एवं मूत्रावयव, वृक्काश्मरी तथा वस्त्य श्मरी को लाभप्रद है । श्रात्तव एवं मूत्ररोध, संधिवात पार्श्वशूल, गृध्रसी, और निक्रूरस को लाभप्रद है। बकरी या ऊँट के दूध के साथ शीत

Loading...

Page Navigation
1 ... 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895