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अफ.सन्तान
अफ सन्तीन
इसकी उष्णता वहाँ ऐसी न होगी कि रूक्षता की वृद्धि कर मस्सों को कठिन बना सके; प्रत्युत उस सूक्ष्म उष्मा के कारण तलय्यिन (मृदुता), तह लील (विलेयता) और तस्वीन ( गर्मी ) प्राप्त होगी । (८) और अपनी तल्तीन ( संशोधन वा द्रावण ), तहलील ( विलायन ) और इद्रार (प्रवर्तन, रेचन) के कारण विषमज्वरों को लाभदायक है । (१) इसके क्वाथ का वाष्प स्वेद (भफारा) करने से कर्णशूल प्रशमित होता है । क्योंकि यह वायु को लयकर्ता और श्लेष्मा को मृतु एवं लय करता है। और पैतिक दोषों को भी निकाल डालता है ।(१०) चूँकि अक्सन्तीन के भीतर कडु अाहट है । अतः यह उदर की कृमियों को मार डालता है। ( तन०)
संक्षेप में यह बल्य, संकोचक, रोधोद्राटक, संकोचक, प्रवर्तक वा रेचक, ज्वरन्न, उदरकृमिनाशक, मस्तिष्कोत्तेजक और कीटाणुनाशक है। प्रामाशयावसान, प्राध्मानजन्य पाचन विकार, प्रांत्रकृमि, परियाय-ज्वर निवारण हेतु, श्लेष्म स्राव, रजःरोध, रजः स्राव, शिरोरोग यथा शिरः शूल, पक्षाघात, कम्पन, अपस्मार, सिर चकराना, मालीखोलिया इत्यादि तथा कण रोगों और यकृत् एवं लोहा आदि रोगो' में इसका व्यवहार होता है। एलोपैथिक वा डॉक्टरी मतानुसार
प्रभाव-अफ़सन्तीन (पौधा)तिक बल्य, सुगन्धित, प्रामाशय बलप्रद अर्थात् अग्निप्रदीपक, ज्वरघ्न, कृमिघ्न (श्रांत्रस्थ), मस्तिष्कोजक, रजः प्रवर्तक, अवरोधोद्धाटक, स्वेदक, पचननिवारक, और किञ्चिन् निद्राजनक है । (तेल) अधिक काल तक सेवन करने से यह निद्राजनक विष (Narcotic poison.) है।
उपयोग-श्रामाशय बल्य रूप से इसको श्रामाशय की निर्बलता के कारण उत्पन्न अजीर्ण एवं आध्मानजन्य अजीर्ण में देते हैं । कृमिघ्न रूप से इसको केचुओं ( Round worms) और सूती कीड़ों ( Thread worms) के
निःसारण हेतु व्यवहारमें लाते हैं । ज्वरघ्न रूप से इसको विषमज्वरों ( Intermittent fevers ) में प्रयत करते हैं। रजःप्रवर्तक रूप से इसको रजःरोध तथा कष्टरज में देते हैं। मस्तिष्कोजक रूप से इसको अपस्मार और मस्तिष्क नैवल्य इत्यादि रोगों में देते हैं।
नोट-आमाशय तथा प्रांत्र की प्रदाहावस्था में इसका उपयोग न करना चाहिए।
अफ्सन्तीन को गरम सिरका में डुबोकर मोच श्राए हुए अथवा कुचल गए हुए स्थान की चारों ओर बाँधते हैं । श्राक्षेप निरोध के लिए भी इस पौधे के कुचल कर निकाले हुए रस को सिर में लगाते हैं । शिरोवेदना में शिर को तथा संधिवात
और प्रामवात में संधियों को पूर्वोक विधि द्वारा सेंकते भी हैं । एब्सिन्थियम् तिक आमाशय बलप्रद है। यह क्षुधा की वृद्धि करता और पाचन शक्ति को बढ़ाता है । अजीर्ण रोग में इसका उपयोग करते हैं । यह योषापस्मार (Hysteria). आक्षेप विकार यथा अपस्मार, वात तान्विक क्षोभ, वात तन्तुओं की निर्बलता (वात नैर्बल्य ) में तथा मानसिक शांति में भी व्यवहृत होता है। कृमिघ्न प्रभाव के लिए इसके शीत कषाय की वस्ति देते हैं। कृमिनिस्सारक रूप से इस पौधे का तीचण क्वाथ प्रयुक होता है। बालकों की शीतला में इसका मन्द क्वाथ देते हैं । त्वम् रोगों एवं दुष्ट व्रणों में टकोर रूप से इसका बहिर प्रयोग होता है । ( ई० मे० मे० पृ० ८५-डॉ० नदकारणां कृत । पी०वी० एम०).
सिंकोना के दर्या फ्त से पूर्व विषमज्वरों में इसका अत्यधिक उपयोग होता था। वातसंस्थान पर इसका सशक प्रभाव होता है। शिरोशूल एवं इसके अन्य वात संबन्धी विकारों को उत्पन्न करने वाली प्रवृत्ति से काश्मीर तथा लेदक के यात्री भली प्रकार परिचित हैं। क्योंकि जब वे देश के रस विस्तृत भाग से जो उन पौधे से श्राच्छादित है, यात्रा करते हैं, तब उनको यह महान कष्ट सहन करना पड़ता है। (वैटस डिक्शनरी १ ख० ३२४ पृ.)
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