Book Title: Ayurvediya Kosh Part 01
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj

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Page 809
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वगंधा अश्वगंधा -- -- - लुभाबी एवं किञ्चित् तिक्त स्वादयुक्त होता है। "मेटिरिया मेडिका श्रॉफ वेष्टर्न इंडिया" में यह मत प्रगट किया गया है कि व्यापारिक वस्तु उपयुक्त पौधे की जड़ नहीं हो सकती। रासायनिक संगठन-इसमें.. सोम्निफेरीन (Soinniferin) वा अश्वगंधीन नामक . एक क्षारीय सत्व (क्षारोद) पाया जाता है जो . निद्राजनक है तथा राल, वसा और रजक पदार्थ · पाए जाते हैं। . प्रयोगश-मून, बीज तथा पत्र। मात्रा-२ तो. ... . औषध निर्माण-मूल चूर्ण,मात्रा-४ श्राना .. से ८ आना पयंत । क्षार, मात्रा-२ श्राना से ४ाना तथा अशवगधाघृत और अशवगंधाऽ . रिष्ट आदि । ... अश्वगन्धा के गुणधर्म तथा उपयोग - आयुर्वेदीय मतानुसार-प्रशवगधा तिक्त, कपेली, उष्ण वीर्य तथा वातकफनाशक है और विष, वण व कफ को नष्ट करती एवं कांति, वीयं व बल प्रदान करती है। धन्वन्तरीय निघण्टु । . शुक्रवृद्धिकारक होने के कारण इसको शुक्रला कहते हैं तथा यह तिक, कटु, उष्णवीर्य एवं बलकारी है तथा कास, श्वास, व्रण और वात को नष्ट करने वाली है । (रा०नि० व०४) असगंध बलकारक, रसायन, निक, कषेला, गरम और अत्यंत शुक्रल है ए' इसके द्वारा वात श्लेष्म, श्वित्र (सफेद कोढ़ ), सूजन, क्षय, श्रामवात, व्रण, खासी और श्वास का नाश होता है । ( भा० पू० १ भा०। मद. व०१) यह रसायन है और वात कफ, सूजन तथा श्वित्र ( सफेद कोद) को नष्ट करता है । . (भा० म० ख० १ भा०) .. ... अश्वगंधा जरा ( वृद्धता ) व व्याधि नाशक . . और कषेली एवं किचित् कटुक (चरपरी) है .. तथा धातुवर्धक व बल्य है। (वृहनिघण्टु 'रलाकर)। ...अशवगंधा के पत्रका प्रलेप करनेसे ग्रंथि, गन गंड तथा अपची का नाश होता है। (शोढ़ल निघण्टु) तत्शोधनं यथा प्रयोगाः-पञ्च पल्लव तोयेन गंधानः ज्ञाननं तथा । शोषणचापि संस्कारो विशेषश्चात्र वच्यते ॥ - सलगंध के वैद्यकीय व्यवहार चरक-श्वास में अश्वगंधा मूल चारश्वास रोगी को घृत तथा मधु के साथ अश्वगन्धा के अन्तधूमदग्ध क्षार का सेवन कराएँ । यथा"क्षारञ्चाप्यश्वगन्धाया लेहयेत् क्षौद्र सर्पिषा।" (चि० २१ अ.) सुश्रुत-शोथ में अश्वगन्धा-कुट्टित अश्वगन्धा २ तो० को गव्य दुग्ध प्राध पाव तथा जल डेढ़ पाव के साथ दुग्ध मान अवशेष रहने तक क्वाथ प्रस्तुत करें और इसे वस्त्रपूत कर शोष रोगी को पिलाएँ; किम्वा क्षीर परिभाषानुसार प्रस्तुत असगन्ध के क्वाथ से मन्थन द्वारा निकाले हुए नवनीत और उससे बने हुए घृत का पान कराएँ । यथा "क्षीरं पिवेद्वाप्यथ वाजिगन्धा-1 विपक्वमेवं लभते च पुष्टिम् । तदुत्थितं क्षीर धृतं सिताढयम् । प्रातः पिवेद्वाथ पयोऽनुपानम् ।" (उ० ४१ अ०) । मात्रा-ग्राधा तो० से १ तो० तक। चक्रदत्त-धातव्याधि में अश्वगन्धा-(१) असगंधका क्वाथ तथा कल्क और इससे चतुर्गुणधृत इन सबको गोघृत के साथ यथा-विधि पाक कर सेवन करें। यह घृत वातघ्न, वृष्य एवं मांस वर्द्धक है। यथा'अश्वगन्धा कषाये च कल्के क्षीर चतुगुणम् । घृतं पक्वन्तु वातघ्नं वृष्यं मांस विवद्धनम् ॥, (वातव्याधि० चि०) (२) उदरोपद्रवभूत शोथ में अश्वगन्धा. उदर रोग में शाथ होने पर प्रसगन्ध को गोमूत्र में पीसकर पान कराएँ । यथा"गोमूत्रपिष्टामथवाश्वगन्धाम् ।" .. (उदर० चि.) (३) बन्ध्यात्व में अश्वगन्धा-पीर परि For Private and Personal Use Only

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