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अञ्जनम्
अञ्जनम्
है (ऐण्टि = विपरीत + मोनाक्स = उपदेष्टा, सन्यासी) जिसका अर्थ सन्यासी या साधु के विपरीत अर्थात् नष्ट करनेवाला है । कहा जाता है कि सन् १७६० ई० में वालरटेन नामी एक रासायनिक ने, जिसने कि सर्व प्रथम उन शुद्ध धातु के असली गुण-धर्म का वर्णन किया, इसके औषधीय गुणधर्म दर्याप्त करने के लिए इसे कुछ सन्यासियों को खिलाया । फलतः वे सब के सब इस विष द्वारा मरणासन्न हो गए। इसी कारण इसका नाम ऐरिटमोनियम पड़ गया।
इतिहास-उपयुक वर्णनानुसार स्रोताजन अर्थात् सुर्मा रूप से यह औषध प्राचीन वैदिक काल से, यूनानी व रूमी चिकित्सकों को मालूम थी । अस्तु . हकीम दीस्करीदूस (Dioscori. des) यूनानीने स्टीमी नाम से तथा हकीम बलीनास रूमी ने स्टीबियम् नामसे इसका वर्णन किया है। इन दोनों ने इसको शोधक (एवेक्वेण्ट) अर्थात् वामक तथा रेचक लिखा है और अबतक प्रायः चिकित्सक इनके अनुयायी हैं। परन्तु, हकीम बुकरात व हकीम जालीनूस ने इसमें संग्राही तथा मुक़त्ता ( काटने छाँटने वाले ) गुण की विद्यमानता का भी वर्णन किया, पर उन्होंने इसका वाह्यरूप से ही उपयोग किया था ।
प्राचीन चिकित्सक इस धातु को प्रकृति में पाया जाने वाला यौगिक सौ रूप से उपयोग में लाते थे। उनका यह विचार था कि सुर्मा (अंजन गन्धिद) गन्धक और पारद का यौगिक है और किसी किसी का यह विचार था कि यह गन्धक और सीसा का यौगिक है। इससे स्पष्ट है कि उनको अंजनम् धातु के मौलिक रूप का ज्ञान न था । शेखुर्रईस ने इसे मृत सीसा का जौहर लिखा है । जिसका कारण आगे वर्णित होगा ।
प्रायः प्राचीन भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्सा एवं रसशास्त्रों में सभी जगह सुर्मा के विविध प्रयोगों का वर्णन पाया है। वे इसके गुण धर्म एवं वाह्य व प्राभ्यन्तर उपयोग से भली भाँति परिचित थे। इतना ही नहीं अपितु, संसार के सब से प्राचीनतम ग्रन्थ वेद (श्रथ० ) में तो इसका पर्याप्त वर्णन उपलब्ध होता है।
नोट-शुद्ध प्रअनम् धातु (Antimony), औषध रूप से व्यवहार में नहीं पाता, किन्तु इसके निम्न लिखित प्रकृति में पाए जाने वाले या रसायनशालामें बनने वाले यौगिक ही औषध रूप से उपयोग में पाते हैं।
आयुर्वेद शास्त्र में अञ्जनम् धातु (Antimony ) अर्थात् इसके यौगिकों के अतिरिक श्रअन शब्द उन समस्त अर्थों के लिए व्यवहार में आता है जिनका आँजने से सम्बन्ध है। फिर चाहे वे खनिज या वानस्पतिक द्रव्य हों, अथवा प्राणिज । कहा भी है :अञ्जनं क्रियते येन तव्यं चालनं स्मृतम् ।
अर्थात् जिस द्रव्य से आँजन किया जाय वह अञ्जन कहलाता है। अस्तु, जहाँ इसके भेदों का वर्णन होता है। वहाँ से भी यह बात स्पष्ट होती है । यथासौवीरमअनं प्रोक्तं रसाअन मतः परम् । स्रोतोऽअन तदन्यश्च पुष्पाअनकमेव च ।
नीलाअनञ्चति ॥ (रस० दर्प०, वा०) अर्थात्-सौवीरांजन, रसांजन, स्रोतांजन पुष्पांजन और नीलाञ्जन प्रभति पंचविध अंजनों में से रसांजन किसी किसी के मत से पीले चन्दन का गोंद है अथवा पीले चन्दन के काढ़े से बनता है और पीत होता है । यथापीत चन्दन निर्यास रसांजनमितीरितम् । तत्क्वाथजं वा भवति पीताभं वक्त्र रोगनुत् ॥
और किसी किसी के मत से दारुहल्दी के काढ़े को बकरी के दूध में मिलाकर प्रौटाकर गाढ़ा करलें । यही रसांजन अर्थात् रसवत् है । यथादार्ची क्वाथ समं क्षीरं पादपक्का यदा धनम् । तदा रसांजनाख्यं तन्नेत्रयोः परमं हितम ।
(भा०) और किसी किसी के विचारानुसार यह कृष्ण. पाषाणाकृति का एक द्रव्य या नीलांजन है । इसे अंग्रेजी में गैलेना (Galena) या सल्फेट ऑफ लेड (Sulphate of Lead)कहते हैं। यह गन्धक और सीसा का एक यौगिक है।
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