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न्त्रकणिका
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उदरशूल के समान लिखी है । उदाहरणार्थ - विरेचन का प्रयोग और वस्तिदान या पेट पर शृङ्गी ( सींघिया ) लगाना श्रादि । परंतु जैसा कि वर्णन हुआ इस रोग में विरेचन देना अत्यंत हानिकारक है । इसलिए प्राक्कथित डॉक्टरी चिकित्सा की ही शरण लेनी चाहिए ।
पथ्य - रोगी को थोड़ा, स्निग्ध एवं उष्ण और पतला श्राहार दें । दूध में सोडावाटर मिला कर या दूध में अंडे फेंटकर या पतला सागू, अरारुट, यखनी ( मांसरस ) अथवा शोरबा प्रभूति थोड़ी थोड़ी मात्रा में तीन-तीन चार-चार घंटे बाद दें। यदि इतने पर भोन पचे तो पोषक वस्ति द्वारा रोगी का पोषण करें । अन्त्रकणिका antra-kaniká सं० स्त्री० गेंदा, पद्मचारिणी । (Tagetes Erecta ). श्रन्त्रकूजः antrakūjah - सं० पुरं वायुरोग विशेष | नाड़ी शब्द | ( Rumble ) सु० नि० १ श्र० १६ श्लो० ।
अन्त्रक्रूजनम् antra-kūjanam - सं० क्ली० (Rumble ) श्रांन्रध्वनि, श्राँतोंका शब्द, पेट में गुड़ गुड़ ( गड़गड़ ) आदि शब्द होना, श्राँतो की गुड़गुड़ाहट, अंतड़ियों की कुड़कुड़ाहट ।
antrachchhadá-kalá - हिं० संज्ञा स्त्री० ( Omentum ) - श्रश्छ
दाकला ।
अन्त्रच्छदा कला
श्रन्त्रताम्रा antra-tamrá सं० त्रो० गेंदा, पद्मचारिणी । ( Tagetes Erecta ). अत्रधारक कला antra-dharaka-kala-
हिं० संज्ञा स्त्री० उदरच्छदा कला का वह भाग जो प्रांत को पृष्ठवंश के साथ बाँधता हैं । मेसेयटरी Mesentery- इं० । मासारीका - अ० । देखो - मासारीका |
श्रन्त्र परिशिष्ट antra-prishishta-सं० हिं० पु० उपांत्र (Appendix ), बृहत् श्रंत्र के श्रारं भिक थैली जैसे भाग ( त्रपुट ) में दो तीन इञ्ज लम्बी एक पतली नली लगी रहती है, उस नली को उपांत्र या परिशिष्ट कहते हैं । उपांत्र
का क्या विशेष काम है यह अभी किसी को ठीक तौर से मालूम नहीं । सब मनुष्यों में इसकी लम्बाई एक ही जैसी नहीं होती; किसी में यह
इसे अधिक लम्बी नहीं होती किसी में इञ्च लम्बी भी होती है । इस नली का कभी कभी प्रदाह हो जाता है; और फोड़ा भी बन जाता है तब इसको काटकर निकाल देनेकी श्रावश्यकता होती है । देखो - उपांत्र ।
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श्रन्त्रपात्रम् antra-pacham i० क्लो० स्थावर विषांतर्गत वक् (छाल) और सार तथा निर्यास ( गोंद ) विष विशेष । सु० कल्प० २ श्र० लो० ७/
अन्त्रपुच्छ antra-puchchha - हिं० संज्ञा पुं० ( Appendix ) अन्त्र परिशिष्ट । अन्त्रपुट antra-puta - हिं० संज्ञा पु ं० सीकम् Caecum -इंο| ( मिश्राश्र ) श्र श्र्वर - अ० । रोहे चहारम्, रोदहे काज, कानी आँत उ० ।
चतुर्थ श्राँ, यह वृहद् यंत्र में की वह त है जो अधरक्षुद्रांत्र के बाद थैली की शकल में स्थित होती है । श्रीतों के विरुद्ध दो मार्गों के स्थान में इसमें केवल एक ही मार्ग होता है । इसीलिए अरबी में इसको अबर अर्थात् एक चक्षु या कानी श्रांत कहते हैं । अन्वृद्धि में प्रायः यही त अंडकोषो में उतर आती है; क्योंकि अन्य श्रतों के समान यह बंधक सूत्रों द्वारा बँधी नहीं होती ।
अन्त्ररुत्सेच नापः antra-rutsechauápah
-सं० पु० सँड्राधावरोधक, पचननिवारक | (Antiseptic. )
श्रन्त्रवचा antravachá सं० हिं० स्त्री० चोबचीनी ( Smilax glabra, Roxb. ) लिका antra-valliká-सं० स्त्री० महिषवल्ली । रा० नि० ० ६ । श्रन्त्रवल्ली antravalli - सं० स्त्री० सोमवल्ली लता । वै० श० ।
श्रन्त्रविद्रधि
antravidradhi- सं० हिं० स्त्री० उपांत्र प्रदाह, ( Appendicitis )
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