Book Title: Atthpahud
Author(s): Kundkundacharya, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalay

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Page 6
________________ प्रस्तावना भगवान महावीर के अनुयायी रचनाकारों में आचार्य कुन्दकुन्द सबसे अधिक पूर्ववर्ती, चर्चित और स्मरणीय आचार्य हैं। अनेक जैन आम्नाय उन्हें महावीर, गौतम गणधर और जैनधर्म केसाथ एकही पंक्ति में रखकर स्मरण करते हैं और उन्हें भी मंगल रूप मानते हैं। अधिकांश प्राचीन जैन आचार्य रचनाकारों की तरह ही कुन्दकुन्दकेजीवनवृत्त के बारे में भी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। अपने विपुलसाहित्य में वे अपने बारे में कहीं क्षीणतम संकेतभी नहीं देते। अपनी देह को भी अपना नहीं मानने के दर्शन में आस्था रखने वालों के लिए यह स्वाभाविक ही है कि वे आखिर अपना कहें तो क्या और किसे अपना कहें? अट्ठपाहुड के बोहिपाहुड में कुन्दकुन्द ने भद्रबाहु को अपना गमक गुरु कहा है। (गाथा : १७०) लेकिन ये भद्रबाहु चन्द्रगुप्त मौर्य युगीन भद्रबाहु हैं या कोई परवर्ती भद्रबाहु यह स्पष्ट होना कठिन है। कुन्दकुन्द द्वारा उन्हें अपना गमक गुरु कहने का अर्थ तो यह है कि वे उनके समकालीन साक्षात् गुरु नहीं परम्परागत या प्रेरक गुरु थे। नन्दीसंघ की गुर्वावली में जो तिथियाँ दी हुई हैं उनके अनुसार कुन्दकुन्दको १०६ईस्वी में आचार्य पद मिलनाऔर १५८ ईस्वी में उनकास्वर्गवास होना सूचित होता है। ऐसी स्थिति में अनेक विद्वानों द्वारा कुन्दकुन्दको ईसा की पहली सदी का आचार्य मान्य किया जाना उचित ही है। जो भी बाह्य प्रमाण उपलब्ध हैं उनके अनुसार कुन्दकुन्द का मूल नाम पद्मनन्दि, उनकेगुरुका जिनचन्द्र और उनकेदादागुरुका माघनन्दिथा। दक्षिणकेशिलालेखों में कुन्दकुन्द का नाम कोण्डकुन्द पाया जाता है। तमिलनाडु में गुंतकुल के पास कुण्डकुण्डी नामक गाँव है। वहाँ एक गुफा में जैन मूर्तियाँ होने से इस अनुमान को बल मिलता है कि वही आचार्य कुन्दकुन्द का मूल निवास स्थान और तपस्याभूमि रहा होगा। कदाचित् गाँव के नाम पर ही, जैसा किपं. नाथूराम प्रेमी का विचार है, पद्यनन्दिको कोण्डकुन्द कहा गया होगा जिसका शब्द विकास कुन्दकुन्द में हुआ और फिर यही नाम अधिक प्रचलित हो गया। कहा जाता है कि कुरलकाव्य के रचनाकार भी कुन्दकुन्द ही हैं। कुन्दकुन्द की कृतियों की सूचीसे यह सहज निष्कर्ष निकलता है कि उनकी प्रतिभामौलिकसाहित्य सृजन की प्रतिभाहै। वह टीका, व्याख्या, अनुवाद आदि में नहीं रमती। ___ आचार्यकुन्दकुन्दमूलत: संवेदनशील और विचार सम्पदाकेधनीकवि हैं। उनकारचनाकर्म भाव और अध्यात्मपर एकाग्र है। आचार्य होने केनातेवेशास्त्रीयतासे बंधेज़रूर हैं। पर वह उनके रचनात्मक साहित्य सृजन पर हावी नहीं हो पाती। आचार्य कुन्दकुन्द को इतिहास ने दोहरी जिम्मेवारी सौंपी थी। एक ओर जहाँ उन्हें श्रमण भगवान् महावीर के दर्शन को बेहद सरल और मार्मिक रूप में प्रस्तुत करके उसे जन-जन तक पहुँचानाथा वहीं दूसरी ओर इससे भिन्न स्वभाव की भूमिका का निर्वाह करते हुए चतुर्विध जैन संघ के बिखराव कोभी रोकनाथा। उन्हें मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका कोसुदृढ़ और एकजुटरखने का कठिन दायित्व निभानाथा। वेसंघ में बिखराव और शिथिलता के विरुद्ध दृढ़ता सेखड़े हुए मिलते हैं। उनके दिशानिर्देश काल की कसौटी पर खरे उतरे हैं और उनकी प्रामाणिकता तथा प्रासंगिकता पर कभी कोई प्रश्न खड़ा नहीं हुआ। उनके निर्देश और कथन आज भी सर्वोच्च और

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