Book Title: Aradhana
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 110
________________ कि बोधिलाभ अर्थात् सम्यक्त्व से लेकर वीतरागता तक के जैनधर्म की प्राप्ति के निमित्त तथा सर्वथा उपद्रव - रहित मोक्ष के निमित्त भी यहाँ कायोत्सर्ग किया जाता है । कायोत्सर्ग तो छोटा है, किन्तु इसमें अपनी वंदनादि की उत्कट इच्छा प्रगट होती है। कायोत्सर्ग के ध्यान में साधनभूत श्रद्धा मेधा आदि आवश्यक हैं। उसमें भी बढ़ती हुई श्रद्धा, मेधा आदि साधनों द्वारा कायोत्सर्ग का ध्यान करना है । वह इस प्रकार, कायोत्सर्ग में जिस नवकार या लोगस्स का ध्यान किया जाता है, (१) पहले चरण में उसके लिए यह श्रद्धा होनी चाहिए कि “उसका कायोत्सर्ग-ध्यान करने से हमें दूसरों के द्वारा की जानेवाली वंदनादि से फलित कर्मक्षय का लाभ अवश्य मिलता है।" अपि च, (२) यह कायोत्सर्ग-ध्यान मेधा से करना चाहिए अर्थात् शास्त्रद्वारा विकसित हुई प्रज्ञा से । इससे ध्यान के विषय- विशेष का चिंतन बुद्धिपूर्वक होगा । इसी प्रकार (३) धृति अर्थात् स्थिरता से ध्यान करना चाहिए। (४) ध्यान धारणापूर्वक भी करना चाहिए। इससे यह ख्याल रहता है कि कितना कितना ध्यान हो गया । अंत में (५) ध्यान अनुप्रेक्षा अर्थात् अर्थ-चिंतन के साथ भी करना चाहिए। इससे आत्मा विशुद्ध होती है, एवं उससे परमात्म स्वरूप के अभेद - ध्यान में स्थिर होती है । अभेदानुभव के विकास से आत्मा परमात्मा बनती है, जीव शिव, जैन जिन बन जाता है । परमात्म-भक्ति में वृद्धि और समाधि की शिक्षा के लिए इस सूत्र का चिंतन-मनन आवश्यक है । Jain Education International * ९७ * For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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