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आहार-संज्ञा से मेरी रक्षा करो। मैं आपके स्वरूप का ऐसा ध्यान करूँ कि मुझे पापी आहार-संज्ञा से घृणा हो जाए।
हे त्रिभुवननाथ ! आपका जन्म होने पर स्वर्ग की बड़ी साम्राज्ञी दिक्कुमारियों ने आपको स्नान कराया, लाड़ प्यार किया, रास गीत गाया, बाद में ६४ इन्द्रों ने मेरू शिखर पर आपका जन्ममहोत्सव मनाया। तदपि आपने लेशमात्र अभिमान नहीं किया। इस मानपान में आपने न तो कोई आत्मा की बडाई देखी, न आत्मसिद्धि । हाँ पुण्यकर्म की लीला देखी। दूसरे की लीला में अभिमान कैसा? प्रभु ! आपके जन्म की अपेक्षा मुझे तो राख और धूल जैसा जन्म मिला है, तो भी मैं अभिमान से भरपूर हूँ !
हे जगनाथ ! आपको जन्म से ही राजकीय भोग-सुख प्राप्त हुए, राजवैभव मिला। तो भी आप उससे तनीक भी लिप्त नहीं हुए, हर्षित नहीं हुए, क्योंकि आपने इसमें आत्महित नहीं देखा। इसकी तुलना में मुझे क्या मिला है? ठीकरें ! इनकी प्राप्ति में कुछ भी सार या लाभ नहीं, तो भी मेरी आसक्ति का पार नहीं ! प्रभो ! प्रभो ! मेरा क्या होगा? मुझे ऐसा बल दो कि मैं इस संसार के वैभव और सुखभोगों को तुच्छ समझू, भयानक जानूं, इन पर मुझे किंचित् मान न हो, राग न हो। आप मुझे कोहिनूर हीरे के समान मिले हैं, उसी प्रकार का मुझे आपका धर्म मिला है। इसकी तुलना में यह सुखसंपत्ति काँच के टूकड़े जैसी है। मैं इसमें राग-मोह क्यों करूं? यदि मैं आपकी अपेक्षा इस सुख-संपत्ति को मूल्यवान समझू तो इसका अर्थ यह होगा कि मैं आपको पहचान ही नहीं पाया।
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