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हे जिनेश्वर भगवन् ! आपने चारित्र ग्रहणकर कितना महान् तप किया ! कैसे कैसे परिसह और उपसर्ग सहे ! दिन रात कायोत्सर्ग में खड़े रहकर कैसा उग्र ध्यान किया ! इसमें अपनी काया पर रत्ती भर भी ध्यान नहीं रखा। अतिसुकोमल भी शरीर में बड़ी भारी सहनशीलता धारण की। इसके समक्ष मेरी साधना में मैंने क्या कष्ट रखा है ? नाथ ! मुझे सहिष्णु बनाकर ऐसी साधना की शक्ति दो ।
हे जगदीश ! आपके सदृश नवतत्त्वों का उपदेश और किसने दिया है ? 'अंततोगत्वा सूक्ष्म पृथ्वीकाय, अप्काय और निगोद तक भी जीव होते हैं, -- इस तथ्य को बताने वाले आप ही थे। इनकी रक्षा करने तक का अहिंसा - धर्म भी आपने ही बताया। सूक्ष्म जीवों को अभयदान देने तक का सच्चा साधु-जीवन आपके मोक्ष मार्ग में ही उपलब्ध है । अन्य धर्म में तापस बनकर वन में निवास तो करे परन्तु वहाँ जल, वनस्पति आदि के जीवों की हिंसा की छूट ! वहाँ सर्वथा अहिंसामय चारित्र कहाँ रहा ? वस्तुतः पूर्ण अहिंसा का जीवन यदि कहीं है तो वह जैन साधु-जीवन में ही है। वह भी मानवभव में ही संभव है। यह उपदेश देकर आपने हमें मानवभव का अमूल्य मूल्यांकन व सच्चा कर्तव्य बताया।
हे जगदाधार ! इसी प्रकार आश्रव-संवर का विवेक भी आपके शासन में ही दृष्टिगोचर होता है। 'अविरति कर्मबंधन का कारण है' यह बात आपके सिवा और किसने कही है ? 'पाप न करने पर भी उसके त्याग की प्रतिज्ञा के अभाव में, यानी विरति के अभाव में, कर्मबंधन होता है' यह उपदेश भी
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