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मैं शीख हैये नवि धारी, दुर्गतिमें दुःख लियो भारी, इन कर्मों की गति न्यारी, करे बेर बेर खुवारी, अभि.३ तुमे करुणावंत कहाओ, जगतारक बिरुद धरावो, मेरी अरजीनो एक दावो, इन दुःख से क्युं न छुडाओ,अभि.४ में विरथा जनम गमायो, तन धन सुत नेह न निवार्यो, अब पारस परसंग पामी, नहीं वीरविजय कुं खामी, अभि.५
श्री वासुपूज्य जिन स्तवन
(राग : तुम्ही मेरी) स्वामि तुमे कांई कामण कीधुं चित्त९ अमारुं चोरी लीधुं, अमे पण तुमशुं कामण करशुं भक्ति सहित मन घरमा धरशुं, साहिबा वासुपूज्य जिणंदा, मोहना वासुपूज्य जिणंदा ॥ १ ॥ मन घरमां धरीया घर शोभा, देखत नित्य रहेशो थिर थोभा । मन वैकुंठ अकुंठित भगते, योगी भाखे अनुभव जुगते..
साहिबा. ॥ २ ॥ क्लेशे वासित मन संसार, क्लेश-रहित मन ते भवपार । जो विशुद्ध मन घर तुमे आया, प्रभु तो अमे नवनिधिरिद्धि पाया.. ..- साहिबा. ॥ ३ ॥ सात राज अलगा जइ बेठा, पण भगते अम मनमांही पेठा । अलगाने वलग्या जे रहे, ते भाणा-खडखड दुःख सहे,
साहिबा. ॥ ४ ॥
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