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(२) श्री सीमंधर साहिबा ! हुं केम आवुं तुम पास, तुम वच्चे अन्तर घणुं, मने मलवानी घणी होंश
हुं तो भरतने छेडे ॥ १ ॥
हुं तो भरतने छेडले' कांइ, प्रभुजी विदेह मोझार डुंगर' वच्चे दरिया घणां कांइ, कोशमां कोश हजार ॥ २ ॥ प्रभु देता हशे देशना कांइ, सांभले त्यांना लोक, धन्य ते गाम नगर पुरी जिहां, वसे छे पुण्यवंत लोक ॥ ३ ॥
धन्य ते श्रावक श्राविका जे, निरखे तुम मुख चंद पण ए मनोरथ अम तणा क्यारे, फलशे भाग्य अमंद वर्तीए वार्ता जुओ कांइ, जोषीए मांड्या लगन क्यारे सीमंधर भेटशुं मने लागी एह लगन पण कोई जोशी नहि एहवो, जे भांजे मननी भ्रांत अनुभव मित्र कृपा करे, तुम चरण तणे एकांत वीतराग भाव ग्रहीतुमे, वर्तो छो जगनाथ
तुम की स्वामी, थयो हुं आज सनाथ पुष्कलावती विजय वसो कांइ, नयरी पुंडरीगिणी सार सत्यकी - नंदन वंदना, अवधारो गुणना धाम श्रेयांस नृपकुल चन्दलो कांइ, रुक्मिणी राणीनो कंत वाचक रामविजय कहे तुम, ध्याने मुज मन शांत
१. अन्त में २. विद्यमान ३. पर्वत ४. ज्योतिषी
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