Book Title: Aradhana
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 124
________________ रटना लगाता हूं कि मेरे हृदय में सदैव नि:स्पृहता, प्रेम, करुणा और मैत्रीभाव ही प्रवाहित हो। अंग- ९.नाभि हे भगवन् ! हमें आपके द्वारा नाभि-कमल में किये गए ध्यान की प्रक्रिया सीखनी है। आपने श्वासोच्छ्वास को नाभि में स्थिर करके, मन को आत्मा के शुद्ध स्वरूप से संबद्ध कर ध्याता, ध्यान और ध्येय को एकरूप बनाया। ऐसा करके आपने उत्कृष्ट समाधि सिद्ध की थी। हे प्रभो! आपकी नाभिपूजा के प्रभाव से मुझे ऐसी शक्ति प्रदान करो कि मैं भी अपने प्राण (श्वास) को नाभि में स्थिर करके आत्मा के सहज स्वरूप में लीनता रूप समाधि का अनुभव कर सकूँ। इस प्रकार जिनेश्वर भगवान की शुद्ध भाव से पूजा करने के फल में मलिन मन निर्मल बनता है, उसमें शुभ भावनाएँ जाग्रत् होती हैं। निर्मल मन और शुद्ध भावना से चारित्र में सुदृढता आती है। उससे कर्मों का भरसक क्षय होता है। कर्मक्षय से आत्मा परमात्मा बन जाती है, जीव शिव हो जाता है, जैन जिन बनता है, श्रावक साधु (यानी साधक) बनकर सिद्ध हो जाता है। ऐसी भावना के साथ जिनपूजा करने के पश्चात् चैत्यवंदन करना चाहिए जिसकी विधि अन्यत्र दी गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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