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(यानी जगत्- शिरोमणि) प्रभु के ललाट पर तिलक करो, जिससे तुम जयशील बनोगे ॥ ६ ॥
जिस कंठ के भीतरी वर्तुल खोखले या पोले भाग से वाणी निःसृत कर (वीर प्रभु ने) १६ प्रहर उपदेश दिया, जिसकी (अमूल्य) मधुर ध्वनि मानवों और देवों ने सुनी, उस कंठ पर अनमोल तिलक करो । वह तुम्हें अनमोल लाभ देनेवाला है ॥ ७ ॥
जिस प्रकार (शीतल होने पर भी) हिम - बरफ पडने से वन का भाग जल जाता है - नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार (शीतल होने पर भी) उपशम बल से यानी शान्तसुधारस भाव से हृदय कमल में प्रगट हुई अत्यंत शांति-शीतलता से रागद्वेष रूप पेड-समूह को भगवान ने दग्ध कर दिया। ऐसे प्रभु के हृदय पर किया गया तिलक हमारे में संतोष यानी उपशम भाव उत्पन्न करो ॥ ८ ॥
जिनके नाभिस्थान रूप कमल समस्त गुणों के विश्रामभूत ज्ञान-दर्शन- चारित्रमय शुद्ध रत्नत्रयी से उज्ज्वल है, उस नाभि कमल की पूजा करो । यह करने से अविचल धाम अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥ ९ ॥
प्रभु नवतत्त्व का उपदेश देते हैं । अतः जिनेश्वर प्रभु के नव अंगों की अनेक प्रकार से (केसर- चंदन- कुसुम आदि द्वारा) पूजा करो 1 मुनियों में इन्द्र समान जगत्वत्सल शुभवीर प्रभु का ऐसा कथन है ।
('शुभवीर' इस पद से पू. मुनिराज श्री शुभविजयजी म. के शिष्य मुनिराज श्री पंडित वीरविजयजी म. कवि का इन दोहों के कर्त्तारूप में नाम सूचित होता है ) ॥ १० ॥
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