Book Title: Apaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Author(s): Akhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
Publisher: Akhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 14
________________ अपश्चिम तीर्थंकर महावीर - 4 थे। कुछ देर खड़ी रही। मन से आवाज लगाती रही, लेकिन वे उठे नहीं। फिर अधर सम्पुट को खोलकर प्रिय, मनोज्ञ, अन्तर आहलादकारी वाणी से महाराज को सम्बोधित किया- राजन्! राजन्! राजन्! "कौन? इस अर्धरात्रि में!" सिद्धार्थ ने चौंककर पूछा। "मैं हूं स्वामिन्!" मैंने कहा।। "त्रिशला! इस समय! क्या बात है?" "नाथ! कुछ निवेदन करना है।" "आओ, भद्रासन पर बैठो।" भद्रासन पर बैठकर विस्मित हास्य से- "राजन् ! कुछ कहना है।" मैंने कहा "बोलो कैसे आना हुआ?" सिद्धार्थ ने पूछा । "आज अर्धरात्रि में मैंने चतुर्दश स्वप्न देखे।" "स्वप्न! चतुर्दश स्वप्न! अच्छा! क्या देखे?" “राजन्, बड़े कल्याणकारी, श्रेष्ठ, मंगलरूप स्वप्न देखे।" "तुम बड़ी भाग्यशाली हो। बताओ स्वप्नों को।" तब मैंने वे स्वप्न बतलाए । सुनकर नृपति बड़े ही प्रमुदित हुए। उनके मुख की स्मित-मुस्कान दर्शनीय थी। सुकोमल शब्दों से मुझे सम्बोधित करते हुए आह्लाद भाव पैदा करते हुए बोले- "देवानुप्रिय! तुमने जो कल्याणकारी, शिवकारी, विशिष्ट स्वप्नों को देखा है, ये स्वप्न भावी की श्रेष्ठ स्थिति के द्योतक हैं। स्वप्नानुसार तुम नौ माह, साढे सात रात्रि पूर्ण होने पर सुन्दर, सुकुमार, परिपूर्ण अंगोंपांग वाले, मानोन्मान प्रमाण वाले कोमलांग बालक का प्रसव करोगी। जन्मदात्री जननी बनोगी। "त्रिशले! इन स्वप्नों का परिपूर्ण अर्थ जानने के लिए प्रातःकाल स्वप्न–पाठकों को बुलाएंगे। तब हमें ज्ञात होगा कि वास्तव में ये स्वप्न क्या इंगित करते हैं? अभी तो जाओ अपने शयन कक्ष में और धर्म-जागरण करती हुई यामिनी को विदाई देना।" तथास्तु कहकर विनयावनत अभिवादन कर भद्रासन से उठी और मन्द-मन्द चाल से चलकर वासगृह में गयी। धर्म-जागरणा चल रही थी। पता नहीं कब यामिनी चली गयी, कुछ ज्ञात नहीं हुआ। ऊषा

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