Book Title: Apaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Author(s): Akhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
Publisher: Akhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh

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Page 15
________________ अपश्चिम तीर्थंकर महावीर - 5 की लालिमा ने मन को मधुर चषकों से भर दिया। भोर के उजाले में उज्ज्वल भावनाओं को संजोये मैं नित्य कर्म से निवृत्त होने लगी। ___ अहा! वह कैसी सुखद यामा थी, जिसमें स्वयं राजा सिद्धार्थ का भी मन अतीत की बाहों में झूलने लगा। कितना पुण्यशाली पिता हूं। शय्या पर बैठे महाराजा का चिन्तन चल रहा था। मेरी धर्मप्रिया महारानी त्रिशला ने अपने मातृत्वभाव का अमृत पिलाकर पहली दो सन्तानों को सुन्दर संस्कारित किया है। प्रथम नन्दिवर्धन", जिसने घर में आकर अनुपम आनन्द की अभिवृद्धि कर दी। त्रिशला को नारीत्व से मातृत्व की सुखद यात्रा करवायी। द्वितीय सुदर्शना', जिसका पावन मुख-मण्डल देखने मात्र से मन आह्लाद से अनुप्राणित हो जाता है और अब तृतीय सन्तान के आगमन का इन्तजार है। वह शिशु निश्चय ही पुण्यप्रतापी होगा जिसके जन्म के पूर्व ही चतुर्दश स्वप्न महारानी ने देख लिये हैं। प्रातःकाल होने पर उसका उज्ज्वल भविष्य ज्ञात करने हेतु स्वप्न-पाठकों को बुलाना है। उसका भविष्य ........... वह तो उज्ज्वलतम ही होगा ..... ऐसे दिव्य स्वप्नों से गर्भ में आने वाला वह बालक वंश के गौरव में चार चांद लगाने वाला होगा। गूंज उठेगा घर-आंगन उसकी सुन्दर किलकारियों से। स्वागत है उस अतिथि का हृदय से। मन में परिपूर्ण प्रसन्नता की अभिवृद्धि हो रही है। राजा सिद्धार्थ ऐसे अपनी भावी सन्तान के लिए पलक-पांवड़े बिछाये बैठे थे। वात्सल्य का बंधन निविडतम है, जिसका सहज वियोग कठिनप्रायः है। हृदय की तरंगों से उठने वाली वात्सल्य-लहर चप्पे-चप्पे को तरंगायित करती है। रोम-रोम से छलकता वात्सल्य संयोग से सम्बद्ध रहता है। कहा नी है- नेह पासा भंयकर | मोहपाश जटिलतम है। खुशी की रात्रि चंचल चपला की नाति शीघ्र समाप्त हुई। बालसूर्य हर्षातिरेक की लालिमा से गगन में उदीयनान हुआ। ऊपा ने अभिनव तिलक किया। पक्षियों ने नछुर छनिय से वातावरण को प्रमुदित किया। महाराजा नित्यकर्म से निवृत्त हुए। दरवार ने गये अपने उत्तम सिंहासन पर प्राची दिशा में कुछ लरके सनारूढ़ हुए अपने कौटु म्बिक पुरुपों को बुलाया और कहा- "ईशानकोण -

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