Book Title: Anekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 15
________________ अनेकान्त/12 बन रही है, उसी प्रकार समस्त दिगम्बर आगमतुल्य ग्रंथों की स्थिति भी संकटपूर्ण, अप्रामाणिक और अस्थायी हो जायगी। इससे जैन-संस्कृति की दीर्घजीविता का एक आधार भी समाप्त हो जायेगा। डॉ. गोकुलचन्द्र जैन, के.आर चन्द्रा, अजितप्रसाद जैनर फूलचन्द्र शास्त्री, डॉ एम.ए. ढाकी और जौहरीमल पारख आदि विद्वानों ने भी इसी प्रकार के मत समय-समय पर लिखित या व्यक्तिगत रूप में प्रस्तुत किए हैं। इन ग्रंथों की भाषात्मक अशुद्धता की धारणा, फलत पुनर्विचार चाहती है। 6. प्राकृत के शब्द रूपों में अनेक प्राकृतों का समाहार : यह पाया गया है कि भविस्सदि, विज्जाणंद, थुदि, कोंडकुंड, आयरिय, णमो, आइरियाणं, लोए, साहूणं, अरहंताणं आदि शब्दों में कुछ अंश महाराष्ट्री प्राकृत व्याकरण से सिद्ध होते हैं और कुछ अंश शौरसेनी व्याकरण से। फलतः शौरसेनी के अनेक शब्द मिश्रित व्युत्पत्ति वाले हैं। ऐसी स्थिति में शब्दों की प्रकृति को मात्र शौरेसनी मान लेना उचित प्रतीत नहीं होता। उन पर महाराष्ट्री और मागधी का भी प्रभाव है। अभी चन्द्रा ने ‘णं नन्वर्थे' सूत्र को मागधी और शौरसेनी पर लागू होने के प्रमाण दिए हैं। चूंकि सामान्यतः प्राकृत भाषाओं का मूल-स्रोत एकसा ही रहा है, अतः उनमें इस प्रकार के समाहार स्वाभाविक हैं। क्षेत्र विशेषों के कारण उनके ध्वनि रूप तथा अन्य रूपों में परिवर्तन भी स्वाभाविक है। इन अनेक रूपों की प्रामाणिकता असंदिग्ध है। प्राचीन साहित्य के परिप्रेक्ष्य में विशिष्ट शब्दों की वरीयता की दृष्टि से उनका संपादन, संशोधन फलत युक्ति संगत प्रतीत नहीं होता। 7. दि. आगमतुल्य ग्रंथों के रचयिता आचार्यों का शौरसेनी ज्ञान : अभी तक मुख्य आगमतुल्य ग्रंथों के रचयिता प्रमुख आचार्यों का जो जीवन वृत्त अनुमानित है, उसमें कोई भी अपने जीवन काल में शूरसेन प्रदेश में नहीं जन्मा या रहा प्रतीत होता है। कुछ दक्षिण में रहे कुछ गुजरात और वर्तमान महाराष्ट्र में। इन प्रदेशों की जन-भाषा शौरसेनी नहीं रही है। फिर भी, उनका शौरसेनी का ज्ञान व्याकरण-निबद्ध था यह कल्पना व्याकरणातीत युग में किंचित दुरूह सी लगती है। हा, उन्हें स्मृति परंपरा से अवश्य शौरसेनी-बहुल अर्धमागधी रूप जनभाषा का ज्ञान प्राप्त था जो संभवतः श्रवणबेलगोल परंपरा से मिला हो। वही इनके ग्रन्थों की भाषा रही। इसके शुद्ध-शौरसेनी होने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसके साथ ही यह धारणा भी बलवती नहीं लगती कि शौरसेनी प्राकृत का इतना प्रचार था कि वह कलिग, गुजरात. दक्षिण व मगध प्रदेश में जन-भाषा बन गई हो। हमारे तीर्थकर भी मगध, कौशल, काशी, कुरुजांगल व द्वारावती जैसे क्षेत्रों में जन्मे हैं जहाँ की भाषा भी मूलतः शौरसेनी कभी नहीं रही। यदि ऐसा होता तो इन सभी देशों में आज भी शौरसेनी भाषा-भाषियों की बहुलता होती। फलतः अन्य क्षेत्रों में यह साधु या विद्वत्-गण्य भाषा रही होगी। जो स्थानीय बोलियों से भी प्रभावित रही होगी। 'आठ कोस पर बानी' की लोकोक्ति में पर्याप्त सत्यता है। हाँ, यह संभव है कि इसे मिश्रित रूप में कहीं कहीं राजभाषा के रूप में मान्यता

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