Book Title: Anekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 89
________________ अनेकान्त/10 और राष्ट्ररक्षा करना हमारा कर्तव्य है। चंद्रगुप्त, चामुण्डराय, खारवेल आदि जैसे धुरन्धर जैन अधिपति योद्धाओं ने शत्रुओं के शताधिक बार दांत खट्टे किए हैं। जैन साहित्य में जैन राजाओं की युद्धकला पर भी बहुत कुछ लिखा मिलता है। बाद में उन्हीं राजाओं को वैराग्य लेते हुए भी प्रदर्शित किया गया है। यह उनके अनासक्ति भाव का सूचक है। अतः यह सिद्ध है कि रक्षणात्मक हिंसा पाप का कारण नहीं है। ऐसी हिंसा को तो वीरता कहा गया है। यह विरोधी हिंसा है। चूर्णियों और टीकाओं में ऐसी हिंसा को गर्हित माना गया है। सोमदेव ने इसी स्वर में अपना स्वर मिलाते हुए स्पष्ट कहा है यः शस्त्रवृत्ति समरे रिपुः स्यात् यः कण्टको वा निजमण्डलस्य। तमैव अस्त्राणि नृपाः क्षिपन्ति न दीनकालीन कदाशयेषु ।। अपरिग्रह और पर्यावरण अपरिग्रह सर्वोदय का अन्यतम अग है। उसके अनुसार व्यक्ति और समाज परस्पर आश्रित हैं। एक दूसरे के सहयोग के बिना जीवन का प्रवाह गतिहीन-सा हो जाता है (पर परस्परोपग्रहो जीवानाम्) । प्रगति सहमूलक होती है, संघर्षमूलक नहीं। व्यक्ति-व्यक्ति के बीच संघर्ष का वातावरण प्रगति के लिए घातक होता है। ऐसे घातक वातावरण के निर्माण में सामाजिक विषम वातावरण प्रमुख कारण होता है। तीर्थकर महावीर ने इस तथ्य की मीमांसा कर अपरिग्रह का उपदेश दिया और सही समाजवाद की स्थापना की। समाजवादी व्यवस्था मे व्यक्ति को समाज के लिए कुछ उत्सर्ग करना पड़ता है। दूसरो के सुख के लिए स्वयं के सुख को छोड देना पड़ता है। सासारिक सुखो का मूल साधन संपत्ति का सयोजन होता है। हर सयोजन की पृष्ठभूमि मे किसी न किसी प्रकार का राग द्वेष, मोह आदि विकार भाव होता है। संपत्ति के अर्जन मे सर्वप्रथम हिसा होती है। बाद में उसके पीछे झूठ, चोरी, कुशील अपना व्यापार बढाते है। सपत्ति का अर्जन परिग्रह ही संसार का कारण है। जैन संस्कृति वस्तुत मूल रूप से अपरिग्रहवादी संस्कृति है। जिन, निर्गन्थ, वीतराग जैसे शब्द अपरिग्रह के ही द्योतक है । अप्रमाद का भी उपयोग इसी संदर्भ में हुआ। मूर्छा को परिग्रह कहा गया है। यह मूर्छा प्रमाद है और प्रमाद कषायजन्य भाव है। राग द्वेषादि भाव से ही परिग्रह की प्रवृत्ति बढती है। मिथ्यात्व कषाय, नोकषाय, इन्द्रिय विषय आदि अन्तरंग परिग्रह है और धन-धान्यादि बाह्य परिग्रह हैं। आश्रव के कारण हैं। इन कारणों से ही हिंसा होती है प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा। यह हिंसा कर्म है और कर्म परिग्रह है। आचारांगसत्र कदाचित, प्राचीनतम आगम ग्रन्थ है। उसका प्रारम्भ ही शस्त्रपरीक्षा से होता है। शस्त्र का तात्पर्य है हिंसा। हिंसा के कारणों की मीमांसा करते हुए वहां स्पष्ट किया गया है कि व्यक्ति वर्तमान जीवन के लिए, प्रशस्त, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिए, दुःख प्रतिकार के लिए तरह-तरह

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