Book Title: Anekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 102
________________ अनेकान्त/23 पर्यावरण संरक्षण में तीर्थंकर पार्श्वनाथ की दृष्टि -प्राचार्य निहाल चंद जैन, बीना आज संपूर्ण विश्व मे चेतावनी, चिन्तन और चेतना का दौर चल रहा है। पृथ्वी की सुरक्षा के लिए चेतावनी का विषय है- पर्यावरण, चिन्तन का विषय है - पर्यावरण, प्रदूषण, जबकि चेतना की चुनौती है --- पर्यावरण-सरक्षण । जीवन के सन्दर्भ में पर्यावरण प्रदूषण- दो घटको से जुड़ा हुआ है-- प्रथम-बाह्य-घटक जिसके अन्तर्गत पृथ्वी, जल, वायु, ध्वनि, ताप एव आण्विक रेडियोधर्मी तत्त्वो द्वारा उत्पन्न प्रदूषण की बात आती है और दूसरा आन्तरिक घटक है. जो व्यक्ति की शुभाशुभ भावनाओ तथा उसके मानसिक द्वन्द व तनाव से सबद्ध है। जीवन का आन्तरिक स्वरूप इससे प्रभावित/आन्दोलित रहता है। कमठ के जीव सम्बरासुर और मरुभूति के जीव पार्श्वनाथ के विगत दस भवों की सघर्ष कथा का पर्यावरण के सन्दर्भ में अध्ययन करे, तो हमें एक नयी दृष्टि प्राप्त होती है। समबरासुर-अहकार, क्रोध व बैर की ज्वाला से दग्ध है। उसकी आन्तरिक पर्यावरणीय चेतना, बैर के कालुष्य से विकृत है। उसके अनेक जन्मों की अनंतानुबधी कषाये - कभी कुक्कुट सर्प और कभी भयकर अजगर के रूप में उद्भूत होती हैं। प्रतिशोध से भरे उसके रौद्र-परिणाम-प्रत्येक भव मे मरुभूति के जीवन का प्राणान्त करते है। इसके विपरीत मरुभूति का जीव साधना व संयम की मंजिलें उत्तरोत्तर प्राप्त करता हुआ भीतर के पर्यावरण को विशुद्ध बनाता है। वह कभी हाथी की पर्याय में सल्लेखना व्रत धारण कर सहस्रार स्वर्ग में देव पर्याय प्राप्त करता है, अगले भव मे मुनिराज पद से कर्म-निर्जरा कर अच्युत स्वर्ग मे जाता है, कभी सुभद्र ग्रैवेयक में अहमिन्द्र इन्द्र बनकर भावी तीर्थकर के रूप मे वाराणसी नगरी मे महाराजा अश्वसेन के घर पार्श्वकुमार के रूप मे जन्म लेता है। एक ओर दुष्ट कमठ का जीव अपने परिणामो के कारण आन्तरिक पर्यावरण को विक्षुब्ध कर रहा है और दूसरी ओर मरुभूति की आत्मा सम्यक्त्व की राह चलकर अपने आन्तरिक पर्यावरण को निर्मल व प्रदूषण मुक्त बना रही है। दसवे भव में सम्बर असुर के घोर उपसर्ग के सामने भ0 पार्श्वनाथ की असीम सहन-शक्ति मानो उस आसुरी शक्ति पर, धवल पर्यावरणीय-चेतना की एक अक्षय विजय है। पार्श्वकुमार के नाना महीपाल-तापसी वेश धारण कर अपने सात सौ शिष्यों के साथ पचाग्नि तप कर रहे हैं। वे जगल की लकड़ियों को काट कर आग प्रज्वलित रखते हैं। आग से उत्पन्न धुंआ, रात-दिन, वायु-प्रदुषण का मुख्य कारण बनता

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