Book Title: Anekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 61
________________ अनेकान्त/23 पूर्ण विराम यथास्थान न होने के कारण उत्पन्न हुआ है। दोनों अन्वय भिन्न हैं। यहाँ कोच्छल्ल गोत्र ग्रहपत्यन्वय से संबंधित है, पौरपाटान्वय से नहीं। (s) आवरण परिचय : यह परिचय भ्रामक है। वस्तु स्थिति मैंने इसके पूर्ण स्पष्ट कर दी है। कोछल्ल गौत्र वर्तमान परवार जैन समाज के बारह गोत्रों में एक है, यह सत्य है, किन्तु यह भी सत्य है कि यह गृहपत्यन्वय का भी गोत्र है। गोत्र के नाम साम्य से “गृहपतिवंश का सबंध परवार समाज से हैं" कहना तर्क संगत नहीं है। दोनों अन्वय भिन्न हैं। खजुराहो के पार्श्वनाथ मन्दिर के लेख का भी परवार जैन समाज से कोई संबंध स्थापित नहीं होता है। (6) प्रस्तुत पुस्तक के पैंतीसवें पृष्ठ से ज्ञात होता है कि लेखक को 17वीं शताब्दी के पूर्व का एक भी ऐसा लेख नहीं मिला है जिसमें परवार जाति नाम का उल्लेख हो। शोध खोज के प्रसंग में मुझे ऐसे प्रतिमालेख प्राप्त हुए हैं जिनमें न केवल परवार जाति का उल्लेख है बल्कि 17 वीं शताब्दी से पूर्व का समय भी उनमें अंकित है। अहार के विक्रम सवत् 1202 के एक आदिनाथ प्रतिमालेख में “परवर अन्वय" का स्पष्ट उल्लेख है। कुडीला ग्राम के विस 1196 के आदिनाथ प्रतिमालेख में “परवाडान्वय अंकित मिला है। अहार में विराजमान एक अन्य आदिनाथ प्रतिमालेख में "परवाडान्ववे' पढ़ने में आता है। श्री बालचन्द्र जैन भूतपूर्व उपसंचालक पुरातत्त्व व संग्रहालय रत्नपुर से भी मुझे एक प्रतिमालेख मऊ (छतरपुर) का ऐसा प्राप्त हुआ था जिमसें लेख का आरम्भ "सिद्ध परवाडकुले जात. साधु श्री से हुआ है। विक्रम संवत् 1199 का एक आदिनाथ प्रतिमालेख ऐसा भी प्राप्त हुआ है जिसमें "पुरवाडान्वय” का नामोल्लेख हुआ है। इन अभिलेखों में आये परवर, परवाड और पुरवाड शब्द समानार्थी हैं। तीनों वर्तमान परवार जैन जाति के बोधक हैं। अतः इन अभिलेखो के साक्ष्य में कहा जा सकता है कि बारहवीं शताब्दी में अन्य जैन जातियों के समान ‘परवार' जैन जाति भी छतरपुर और टीकमगढ जिलों में विद्यमान थी। ___ मैं पुस्तक के लेखक मूर्धन्य मनीषी सिद्धान्ताचार्य स्वर्गीय पं फूलचन्द्र जी का कृतज्ञ हूँ जिन्होंने परवार जैन समाज का इतिहास जानने समझने का अवसर दिया। ऐसी अब तक कोई पुस्तक नहीं थी। पुस्तक के प्रेरणास्रोत आदरणीय पं जगनमोहनलाल जी का भी उपकार मानता हूँ जिन्होंने इसके प्रकाशन में बहुमूल्य समय देकर महत्वपूर्ण योगदान किए है। डॉ देवेन्द्र कुमार शास्त्री और डॉ. कमलेशकुमार जैन भी सम्मान के पात्र हैं। समस्त पुस्तकालयों और जैन मन्दिरों में अध्ययनार्थ यह पुस्तक उपलब्ध होइस ओर आशा है श्रीमन्त और धीमन्त ध्यान देंगे। समाज इस पुस्तक के लेखक, प्रेरक ओर विशिष्ट सहयोगी विद्वानों का आभार मानती है। इतर जैन जातियों के इतिहास भी लिखे जावें तो बहुत अच्छा होगा। जैन विद्या संस्थान, श्री माहवीर जी (राज.)

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