Book Title: Anekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 79
________________ वर्णी-प्रवचन जैनधर्म तो इतना विशाल और विशद है कि परमार्थ दृष्टि के परमात्मा से याचना नहीं करता, क्योंकि जैन सन्मत परमात्मा वीतराग सर्वज्ञ है। अब आप ही बतलावें कि जहाँ परमात्मा में वीतरागता है वहाँ याचना से क्या मिलेगा? फिर कदाचित् आप लोग यह शका करे कि मंगलाचरण क्यों किया? उसका उत्तर यह है कि यह सब निमित्त कारण की अपेक्षा कर्तव्य है न कि उपादान की अपेक्षा। तथाहि 'इति स्तुति देव विधाय दैन्याद् वरंन वाचे त्वमुपेक्षकोऽसि। छाया तरुं संश्रवतः स्वतः स्यात् कश्छायया याचितयात्मलाभः ।। जब श्री धनजंय सेठ श्रीआदिनाथ स्वामी की स्तुति कर चुके तब अन्त में कहते हैं कि हे देव । इस प्रकार मै आपकी स्तुति करके दीनता से कुछ वर नहीं मॉगता, क्योंकि वर वहाँ मॉगा जाता है वहाँ मिलने की सम्भावना होती हैं आप तो उपेक्षक हैं-- अर्थात् आपके न राग न द्वेष है आपके भाव ही देने के नहीं, क्योंकि जिसके भक्त में अनुराग हो वह भक्त की रक्षा करने में अपनी शक्ति काउपयोग कर सकता है, अतः आपसे याचना करना व्यर्थ है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि यदि वस्तु की परिस्थिति इस प्रकार है तो स्तुति करना निष्फल हुआ। सो नहीं, उसका उत्तर यह है कि जैसे जो मनुष्य छायावृक्ष के नीचे बैठ गया उसे छाया का लाभ स्वयमेव हो रहा है, उसको वृक्ष से छाया की याचना करना व्यर्थ है। यहाँ पर विचार करो कि जो मनुष्य वृक्ष के निम्न भाग में बैठा है उसे छाया स्वयमंव मिलती है क्योंकि सूर्य की किरणों के निमित्त से जो प्रकाश परिणमन होता था वह किरणें वृक्ष के द्वारा रूक गई, अतः वृक्ष के तल की भूमि स्वयमेव छायारूप परिणमन को प्राप्त हो गई। यद्यपि तथ्य यही है फिर भी यह वयवहार होता है कि वृक्ष की छाया है। क्या यथार्थ में छाया वृक्ष की है? छायारूप परिणमन तो भूमिका हुआ है। इसी प्रकार जब हम रुचिपूर्वक भगवान् को अपने ज्ञान का विषय बनाते हैं तब हमारा शुभोपयोग निर्मल होता है। उसके द्वारा पाप प्रकृति का उदय मन्द पड़ जाता है अथवा अत्यन्त विशुद्ध परिणाम होने से पाप प्रकृति का संक्रमण होकर पुण्यरूप परिणमन हो जाता है। यद्यपि इस प्रकार के परिणमन में हमारा शुभ परिणाम कारण है, परन्तु व्यवहार यही होता है कि प्रभुवीतराग द्वारा शुभ परिणाम हुए अर्थात् सर्वज्ञ वीतराग शुभ परिणामों में निमित्त हुए। यद्यपि उन शुभ परिणामों के द्वारा हमारा कोई अनिश्ट दूर होता है, परन्तु व्यवहार ऐसा ही होता है कि भगवान् ने हमारा संकट टाल दिया। -मेरी जीवन गाथा से.

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