Book Title: Anekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 32
________________ अनेकान्त/29 संसार से भयभीत होने लगता है, जीवों की जाति, कुल योनि जीवसमास, मार्गणा आदि को समझकर अहिंसा जान लेता है। इस अनुयोग से भव्य जीव यह जान लेता है कि पंचलब्धियों में क्षायोपशमिक, विशुद्धि देशना और प्रयोग्य लब्धियां तो समान्य हैं, भव्याभव्य उभय को प्राप्त हो जाती हैं, किन्तु करण लब्धि भव्य जीव को ही प्राप्त होती है। सम्यग्दर्शन प्राप्त करने वाले करणों-भवों को करण लब्धि कहते हैं। इस प्रकार करणानुयोग भी प्रथामानुयोग के समान सम्यक्त्व का कारण है। अतः सम्यग्ज्ञान में इसकी उपयोगिता असंदिग्ध है। (3) चरणानुयोग श्रावक और श्रमण के चरित्र की उत्पत्ति किस प्रकार होती है, उसमें वृद्धि किस प्रकार होती है तथा उस चरित्र की रक्षा किस प्रकार की जाती हे, इस बातों के निरुपक शास्त्रों को चरणानुयोगशास्त्र कहते हैं। रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा गया है "गृहमेध्यनगाराणा' चरित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षाडम्। चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति।।" उपासकाध्ययन, रत्नकण्डश्रावकाचार, मूलाचार, भगवती आराधना आदि ग्रन्थ चरणानुयोग के अन्तर्गत आते हैं | चरित्र के बिना ज्ञान परमावधि, सर्वावधि, मनःपर्यय तथा केवलपने को प्राप्त नहीं हो सकता है तथा चरणानुयोग के विना चरित्र का स्वरूप एवं महत्त्व जानना संभव नहीं है। अतएवं सम्यग्ज्ञान में चरणानुयोग का अतिशय महत्त्व है। पञ्चम् काल में हीन संहनन होने से चारित्र का अधिक महत्व बतलाया गया है। देवसेनाचार्य ने कहा है __'वरिससहस्सेण पुरा जं कम्म हणइ तेण काएण। तं संपइ वरिसेण हु निज्जरयइ हीणसंहणणे।।12 __ अर्थात् उस शरीर से (चतुर्थकाल में उत्तम संहनन से) एक हजार वर्ष के चरित्र से जो कर्म नष्ट होता था, वह हीन संहनन वाले पंचम काल में एक वर्ष में निर्जरा को प्राप्त हो जाता है। चारित्र की पूज्यता सर्वत्र स्वीकृत है तथा गृहस्थ ज्ञानी होने पर भी पूजार्ह नही माना गया है। अतः हमें चरित्र धारण करने तथा उसका पालन करने के लिए चरणानुयोग के अध्ययन का प्रयास करना चाहिए। यह भी स्म्यग्ज्ञान का एक भेद है। (4) द्रव्यानुयोग-जिस अनुयोग में पंचास्तिकाय, षद्रव्य, सप्ततत्त्व, और नवपदार्थ आदि का विस्तार से वर्णन होता है, उसे द्रव्यानुयोग कहते हैं। समन्तभद्राचार्य ने कहा है ___'जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षो च। द्रव्यानुयोगदीप : श्रुतविद्यालोकमातनुते।।13 अर्थात् द्रव्यानुयोग रूपी दीपक जीव-अजीव तत्त्वों को, पुण्य-पाप को तथा बन्ध और मोक्ष को श्रुतज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित करता है । समयसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय, द्रव्यसंग्रह आदि शास्त्र इसी अनुयोग के अन्तर्गत आते है। जब तक जीव को अपने से भिन्न अजीव द्रव्य का ज्ञान नही होगा तक तक उसे आत्मा के एकत्व एवं विभक्तत्व की प्रतीति नहीं हो सकती है। इसी प्रकार पुण्य-पाप एवं बन्धमोक्ष के ज्ञान के अभाव में जीव बन्ध से बचने का उपाय नही करेगा, फलतः मोक्ष भी नहीं होगा। अतएव सम्यग्ज्ञान में द्रव्यानुयोग का माहात्म्य सर्वविदित है।

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