Book Title: Anekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 36
________________ अनेकान्त/33 और मनोविकार उठते रहते हैं। मन निरंतर संकल्प विकल्पों में उलझा रहता है। इन संकल्प विकल्पों के कारण हम अनंत संसार की अनंत वस्तुओं से अपना अनंत सम्बन्ध जोड़ते रहते हैं। ऐसी स्थिति में क्या यह सम्भव है कि आत्मा अपने ज्ञान में स्थित रहे और विकृत न हो। आचार्य कुन्द कुन्द कहते हैं कि हाँ, यह सम्भव है। वे कहते हैं कि जो अपनी आत्मा को जैसा देखता है, वैसा ही पाता है। शुद्धात्मा को देखने वाला शुद्धात्मा को पाता है और अशुद्धात्मा देखने वाला अशुद्धात्मा को पाता है। उनके अनुसार भेद-विज्ञान या सम्यक समझ एक ऐसा उपकरण है जिसके द्वारा हम निर्विकल्प निरालम्ब आत्मा का दर्शन कर सकते हैं। भेद-विज्ञान का अर्थ है कि हम अपने विकल्पात्मक ज्ञान से आत्मा-अनात्मा, ज्ञान-अज्ञान, शुद्धत्मा-मनोविकार, स्वभाव-विभाव, धर्म-अधर्म, आकुलता-अनाकुलता, उपेक्षा अपेक्षा, तत्व-अतत्व, हेय-उपादेय, आदि का ज्ञान प्राप्त कर आत्मा के सच्चे स्वरूप को समझें और उस पर श्रद्धा करें । पश्चात् विकल्पों को त्याग कर आत्मस्थ हो जायें। जब तक विकल्प जाल हैं, तक तक मन में क्षोभ/तरंगे उठती रहती हैं। तंरगायमान मन आत्मा का दर्शन करने में असमर्थ है। इस प्रकार जहाँ विराट वस्तु-स्वरूप के ज्ञान के लिये विविध दृष्टियों या नय ज्ञान की आवश्यकता होती है वहाँ आत्म दर्शन में यही ज्ञान एकांगी, सीमित एवं विकल्पात्मक होने के कारण बाधक हो जाता है। जब तक विकल्प है तब तक आकुलता है, क्षोभ है और इसे दृष्टिगत कर समयसार में गाथा 142 में आचार्य कुन्द-कुन्द कहते हैं कि जीव कर्म से बंधा है या नही बंधा है, यह नय पक्ष का कथन है, किन्तु जो वनय पक्ष का अतिक्रम करता है वह समय-सार अर्थात् निर्विकल्प शुद्ध आत्म ( । इसी भा को आचार्य अमृत चन्द्र कहते हैं कि जो नयपक्षपात को छोड़कर अपने त कर सदा निवास करते हैं, वे साक्षात् अमृत का पान करते हैं क्योंकि ७. चित्त ५कल्प जाल से रहित शांत हो जाता विकल्प जाल अनेक प्रकार के होते हैं। कोई आत्मा को कर्म से बंधा मानता है कोई अबद्ध मानता है। कोई आत्मा को मूढ-अमूढ, रागी-अरागी, द्वेषी-अद्वेषी, कर्ता-अकर्ता, भोक्ता-अभोक्ता, जीव-अजीव, सूक्ष्म-स्थूल. कारण-अकारण, कार्य-अकार्य, भावरूप-अभाव रूप, एक अनेक, सान्त (अंत सहित) अनन्त, नित्य-अनित्य, वाच्य-अवाच्य, नाना-अनाना, चेत्य (जानने योग्य) अचेत्य, दृश्य-अदृश्य, वेद्य (ज्ञान होने योग्य) अवेद्य, भात (प्रकाशवान) अभात आदि नयो से देखते हैं, किन्तु जो नयों के पक्ष-पात को छोडते हैं उन्हें चित्स्वरूप जी का चित्स्वरूप जीव का चित्स्वरूप अनुभव होता है। ___ आचार्य-द्वय के उक्त कथनों से स्पष्ट है कि जो व्यक्ति चित्त के होकर किसी एकांगी विचार धारा से बंधे हैं और उसे ही सर्वथा सत्य-मान रहे हैं, विकल्प से जुडे होने के कारण, उन्हें कभी भी आत्म-दर्शन करना सम्भव नहीं है। किन्तु जिनका चित निर्मल और सरल है तथा अनेकान्त के स्वरूप को समझ कर, जो जैसा है वैसा आग्रह विहीन स्वीकार करते है, उन्हें तत्व-अभ्यास, स्वाध्याय, तत्व-चिंतन एवं परमात्म भक्ति या शुद्धत्म भक्ति से निर्विकल्प आत्म साक्षात्कार हो सकता है। यही एक ऐसा राजमार्ग है जिस पर चलकर विकल्पों के बीहड़ वन में

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