Book Title: Anekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 40
________________ अनेकान्त/2 संस्थाओं के साथ सम्बन्ध आचार्य को मुनि-संस्था (मुनि-संघ) का नेतृत्व करना पड़ता है। उसका उद्देश्य यह है कि जिन पवित्र आत्माओं ने भीषण भव-भ्रमण के कष्टों से ऊब कर शान्ति की इच्छा से मुनि-व्रत धारण किया है, या जो देश-व्रत का पालन करना चाहते हैं उनको वे शान्ति के मार्ग सम्यक् चारित्र पथ पर चलावें और उस पर चलते हए उनके मार्ग में अनेक अतिचार रूप कंटक आ जावें तो उनका शोधन कर उनके मार्ग को अक्षुण्ण बनाये रखें तथा अपनी आत्मा को भी चारित्र पथ पर आरूढ़ रखें। इसके अतिरिक्त अन्य किसी संस्था से किसी भी प्रकार का आत्मीय सम्बन्ध रखना उनके लिए अनिष्ट है। यद्यपि विद्यालय, अनाथालय, ब्रह्मचर्याश्रम आदि संस्थाएँ धर्म सम्बन्धी हैं, तथापि वे द्रव्यादि साधनों की भित्ति पर आश्रित रहती हैं। मुनीश्वर समस्त (१४ प्रकार के अन्तरंग और १० प्रकार के बाह्य) परिग्रह के त्यागी होते हैं। यदि वे उनसे सम्बन्ध रखें तो उनके चित्त में रात-दिन उन संस्थाओं के लिए द्रव्यादि की चिन्ता बनी रहेगी। इस चिन्ता पिशाचिनी से भयभीत होकर ही तो उन्होंने वन का मार्ग लिया और वहाँ पर भी उन्होंने उसे निमन्त्रण देकर बुला लिया तो उनके गृह-त्याग का क्या फल हुआ? मुनि-पद में रह कर गृहस्थ के योग्य कार्य करना मुनि-धर्म को दूषित करना है। अतः यह कार्य मुनि के लिए सर्वथा अयोग्य है। द्रव्यादि का सम्बन्ध आत्मा में मोह का जनक और मोह आत्मा का शत्रु है, इसलिए मोह के जनक कार्यों से सम्बन्ध रखना अपनी आत्मा को मोह-शत्रु के अधीन बनाना है। यह समझकर जिन कार्यों से द्रव्य (रुपये पैसे) का सम्बन्ध है, उन कार्यों से मुनियों को सदा दूर रहना चाहिए। जिस द्रव्य (रुपये पैसे आदि) के छूने मात्र से मुनि को कलंकित बताया गया है, उसका अपने साथ साक्षात् या अपने संघ के किसी व्यक्ति के द्वारा अपना सम्बन्ध रखने से क्या मुनि-पद नष्ट नहीं होता? अवश्य नष्ट होता है। इसलिए रुपये-पैसे से सम्बन्ध रखने वाला मुनि नहीं होता, वह श्रावक से भी हीन और पतित बन जाता है। व्यवहार में भी कहते हैं कि गृहस्थ कौडी बिन कौड़ी का और साधु कौड़ी रखे तो कौड़ी का।' साधु तो वही होता है जिसके पास तिल तष मात्र भी परिग्रह नहीं होता, फिर परिग्रह रखने वाला कैसे मुनि हो सकता है? किन्तु क्या करें। फूटी आँख विवेक, की सूझ पड़े नहिं पन्थ। ऊंट बलध लादत फिरें, तिनसों कहत महन्त।। यदि कोई अत्यन्त आवश्यक धर्म कार्य व ज्ञानवृद्धि का कार्य करवाना हो तो वह कार्य गृहस्थ को सौंप देना चाहिए। उसका भार अपने पर रखना परिग्रह का धारण करना ही है। जब दिगम्बर मुनि ही परिग्रह रखने लग जावें तब अन्य धर्मों के साधुओं से इस में क्या अन्तर रहा? -'संयम प्रकास' से साभार

Loading...

Page Navigation
1 ... 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118