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अनेकान्त/13. है। उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को आचार्य ने नियम या मोक्षोपाय या मोक्षमार्ग कहा है। मोक्षमार्ग के अर्थ में नियम शब्द का प्रयोग कुन्दकुन्द की अपनी विशेषता है, क्योंकि अन्य किसी भी ग्रन्थकार ने उक्त सन्दर्भ में नियम शब्द का प्रयोग नहीं किया है। नियमसार में व्यवहार नय और निश्चय नय की दृष्टि से नियम का विवेचन किया गया है।
निश्चय नय की दृष्टि से अपनी आत्मा को देखना, उसे जानना और उसी का आचरण करना, मोक्षमार्ग है, रत्नत्रय है, नियम है। अतः आत्मा के द्वारा आत्मा को देखना, जानना और आचरण करना, निश्चय नियम है। आचार्य कहते हैं कि शुभ और अशुभ वचन रचना एवं रागादि भावों का निवारण करके अपनी आत्मा का ध्यान करना निश्चय नियम है।' समयसार में कहा गया है कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र तो व्यवहारनय से मोक्षमार्ग हैं | निश्चय नय से शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा ही मोक्षमार्ग है, इसलिए आत्मा को ही दर्शन, ज्ञान और चारित्र स्वरूप जानकर सेवन करना चाहिए। वहीं पर एक उदाहरण देकर इसे और अधिक स्पष्ट किया है। जिस प्रकार धन चाहने वाला राजा को जानकर उसका श्रद्धान करता है और उसके बाद प्रयत्नपूर्वक उसी की सेवा करता है। इसी प्रकार आत्मा रूपी राजा को जानना, मानना और सेवन करना चाहिए । यही निश्चय नियम है। सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्र को पृथक् मानना व्यवहार नय से नियम है।
सम्यग्दर्शन : आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों मे सम्यग्दर्शन के लिए “सम्मत्तं' शब्द का प्रयोग किया है। नियमसार में कहा गया है कि आप्त, आगम और तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है।' मोक्षप्राभृत में कहा है हिंसा रहित धर्म मे, अठारहदोष रहित देव में तथा निर्ग्रन्थ प्रवचन में विश्वास करने से सम्यक्त्व होता है। जीवादि तत्वों का श्रद्धान करना व्यवहार सम्क्त्व है।" देव, शास्त्र और गुरु एव तत्वों का श्रद्धान करना, उनमें रुचि रखना, व्यवहार सम्यग्दर्शन है।
जैन परम्परा मे आप्त को सर्वज्ञ तथा केवली भी कहा गया है। वह यथार्थ वक्ता होता है- 'आप्तस्तु यथार्थवक्ता" इति । नियमसार में आप्त को परमात्मा कहा हैं। वह क्षुधा तृषा, भय, रोष, राग, मोह चिता, जरा, रुजा, मृत्यु, स्वेद, खेद, मद, रति, विस्मय, निद्रा, जन्म और उद्वेग इन अठारह दोषों से रहित एवं केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलवीर्य और केवलसुख रूप वैभव से युक्त होता है। आत्मा के गुणों का घात करने वाले ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का क्षय होने से जीव के समस्त विभाव नष्ट हो जाते हैं तथा केवलज्ञानादि स्वभाव गुण प्रकट हो जाते हैं और जीव सर्वज्ञत्व/आप्तत्व को प्राप्त कर लेता है।
आगम आप्त के उपदेशों का संकलन हैं। उसमें तत्वों/का कथन होता है। आगम को श्रुत तथा शास्त्र भी कहते हैं। नियमसार में आप्त के मुख से निकले हुए पूर्वापर विरोध रहित शुद्ध वचनों को आगम कहा गया है।"