Book Title: Anekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 35
________________ अनेकान्त/32 भी धर्म रूप स्वभाव है। आचार्य कुन्द कुन्द के अनुसार आत्मा निश्चय से एक शुद्ध, ममतारहित और ज्ञान-दर्शन से पूर्ण है। निश्चय से वह अकर्ता, अभोक्ता है। रूप, रस, गंध एवं वर्ण से रहित चैतन्य स्वरूप ज्ञायक है। ज्ञान और दर्शन-साक्षीपना यह आत्मा के विशिष्ट गुण हैं जो सदैव उसके साथ बने रहते हैं। जहाँ-जहाँ आत्मा है, वहा-वहां ज्ञान है। जहां ज्ञान है वहां आत्मा है। आत्मा और ज्ञान एक है। आत्मा के बिना ज्ञान नहीं और ज्ञान के बिना आत्मा नहीं । कुन्द कुन्द के अनुसार ज्ञान स्वभावी आत्मा अपने ज्ञान में स्थित रहे या आत्मा मात्र अपने को ही जानती रहे, उसका ज्ञान स्खलित न हो यही उसका धर्म है। ज्ञान,ज्ञान में रहे या मैं अपने आप में रहूँ इसके लिये कहीं कुछ करना या न करना नहीं पडता। मात्र ‘होना' होता है। जब सहज रूप से ज्ञान, ज्ञान में होने लगता है तब जीवन मे स्व-धर्म का प्रवेश होता है। इस होने का प्रथम बिन्द आत्मा साक्षात्कार कहलाता है। आत्मा साक्षात्कार को ही प्रभु मिलने की संज्ञा दी गयी है । इसे जानने और करने की क्रिया अलग-अलग है। जानना सहज होता है, उसके लिये जानने का विकल्प भी नहीं करना पडता क्योंकि विकल्प भी क्षोभ उत्पन्न करता है। प्रश्न उठता है कि जानने या ज्ञान में ऐसा क्या हो जाता है जो अधर्ममय या अ-चरित्र या अ-दयामय कहलाने लगता है। आचार्य कुन्द कुन्द ने कहा कि ज्ञान धर्म या अधर्म रूप हों, यह इस बात पर निर्भर करता है कि ज्ञाता की श्रद्धा और ज्ञान सम्यक् है या मिथ्या। उसकी आतरिक वासना या अभिप्राय कैसा है। जो /विचार ज्ञान में आया है उसके बारे में ज्ञाता का अभिप्राय कैसा है, उसके प्रति अपनत्व का भाव है या उपेक्षा का | उसके प्रति दृष्टि रागात्मक है, द्वेषात्मक है या तटस्थ स्वामित्व, ममत्व भाव है या उदासीनता का आदि। यदि ज्ञाता की दृष्टि ज्ञान के साथ मोह राग द्वेष युक्त हैं, असम्यक् है, तब वह ज्ञान भावो के अनुसार पुण्य पाप मय स्वरूप होगा। किन्तु यदि ज्ञाता की दृष्टि ज्ञान के प्रति उपेक्षा या तटस्थता या समतापूर्ण है, तब वह ज्ञान स्व-धर्म स्वरूप होगा। इस प्रकार जब ज्ञाता-ज्ञान -ज्ञेय एकात्म हो जाते हैं और आत्मा/ ज्ञान ज्ञान मे ही जम रम जाता है जब वह धर्म की आदर्श स्थिति होती है । ज्ञान का ज्ञान में रमना ही निश्चय चारित्र है और यही स्व-पर दया है। दया इसलिये है, कि ज्ञान मे ज्ञान के रमने पर राग-द्वेष मोह समाप्त हो जाते हैं। ऐसी स्थिति मे ज्ञाता को समस्त जीव जगत अपने ही जैसा ज्ञान स्वरूप ज्ञायक ही दिखाई देने लगता है। वहाँ हिसा, परिग्रह आदि को स्थान ही कहाँ है? इसी कारण दया विहीन और हिंसक को अधर्मी कहा है। ऐसे व्यक्ति स्वप्र मे भी धार्मिक नहीं हो सकते है। ___ धर्म और धार्मिकपने की उक्त सहज सरल व्याख्या आचार्य कुन्द-कुन्द ने की, जो मननीय एवं अनुकरणीय है। संक्षेप मे, मोह-राग द्वेष आदि विकारी भाव रहित आत्मा अपने ज्ञान स्वरूप में निरंतर स्थित तन्मय रहे, यही उसका धर्म है और यही परमेश्वरत्व है। ऐसा शुद्ध आत्मा वीतरागी, वीतद्वेषी और वीतमोही होगा। ज्ञान स्वभावी आत्मा ज्ञान में स्थिति रहे, यही आत्मा का धर्म है, यह कथन बहुत सीधा-सरल है। परन्तु क्या यह सरल-सभव है। आत्मा में निरंतर आत्मविकार

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