Book Title: Anekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 31
________________ अनेकान्त/28 आज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ एवं परमावगाढ ये दशा रुचि के भेद से सम्यकत्व के भेद कहे गये हैं। दश प्रकार के इन भेदों में एक उपदेश नामक सम्यग्दर्शन भी है। तीर्थकर बलदेव आदि शुभचारित्र के उपदेश को सुनकर जो समयग्दर्शन धारण किया जाता है, वह उपदेश सम्यग्दर्शन है। यह उपदेश सम्यग्दर्शन प्रथमानुयोग के विना संभव नहीं है। इसी प्रकार जातिस्मरण आदि के निमित्त से उत्पन्न सम्यक्त्व के उदाहरण भी प्रथमानुयोग से जाने जाते हैं। अतः सम्यग्ज्ञान में प्रथमानुयोग की अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका है। द्वादशांग में बारहवें अंग के परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत एवं चूलिका ये पांच भेद कहे गये हैं। इनमें प्रथमानुयोग का मध्य में कथन मध्यमणि न्याय से प्रमुखता का प्रतिपादक है। सम्यग्दर्शन होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो जाती है, अपितु तीर्थकर सदृश महापुरुषों को भी तपश्चरण करना पड़ता है। यह बात प्रथमानुयोग से ही ज्ञात होती है। अदिपुराण, उत्तरपुराण, पद्मपुराण आदि प्रथमानुयोग के ग्रन्थों के अध्ययन से ज्ञात होती है कि पुण्य एवं पाप के फलस्वरुप किस प्रकार लोगों को सुख एवं कष्ट की प्राप्ति हुई। इन उदाहरणों से लोगों की पाप से भीति तथा पुण्य से प्रीति होने लगती है, अतः प्रथमानुयोग की सम्यग्ज्ञान में महती उपयोगिता है। प्रथमानुयोग को सभी अनुयोगों में प्रमुख इसलिए माना गया है, क्योकि इसमें अन्य अनुयोगों का विषय भी आ जाता है इसे आबालवृद्ध सभी समझ सकते हैं, यह मिथ्यात्व छुडाने का साधन है इससे पाप से अरुचि तथा धर्म में रुचि होती है तथा यह रत्नत्रय की पूर्णता में साधक बनता है। जिस प्रकार, पुरूषार्थचतुष्टय में धर्म का प्रथम स्थान है उसी प्रकार अनुयोग चतुष्टय में प्रथमानुयोग का प्रमुख स्थान है। (2) करणानुयोग : जो श्रुतज्ञान लोक-अलोक के विभाग को, युग के परिवर्तन को तथा चतुर्गति के परिवर्तन को वाणि के समान जानता है, उसे करणानुयोग कहते हैं। समन्तभद्राचार्य ने कहा है 'लोकालोकविभक्ते युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च। आदर्शमिव तथा मतिरवैति करणानुयोगं च।। 10 इस श्लोक का भाव स्पष्ट करते हुए सुप्रसिद्ध टीकाकार पं सदासुखदास काशलीवाल ने लिखा है-“जामें षट्काय रूप तो लोक, अर केवल आकाश द्रव्य हो सो अलोक, अपने गुण पर्यायनि सहित प्रतिबिम्बित होय रहे हैं । अर छह काल के निमित्ततै जैसे जीवपदगलनि की परिणति है सो प्रतिबिम्ब रूप होये जामैं झलके हैं, अर जामें चार गतिनि का स्वरूप प्रकट दिखै है, सो दर्पणसमान करणानुयोग है, तिनै यथावत् सम्यग्ज्ञान ही जाने है जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि करण शब्द परिणामविशेष एवं गणित सूत्रो का वाचक है । अतएव इस अनुयोग का विषय गुणस्थान, मार्गणा, जीवसमास आदि के आश्रयभूत जीव के परिणामविशेष भी है और लोक आदि के विस्तार को निकालने के लिए गणितसूत्र भी। कर्मो के उदय उपशम, क्षय, क्षयोपशम की चर्चा भी इसी अनुयोग में होती है। षट्खण्डागम, गोम्मटसार जीवकाण्ड , कर्मकाण्ड, त्रिलोकसार, त्रिलोक्यप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थ इसी अनुयोग के हैं। करणानुयोग के ग्रन्थों में स्वाध्यायी लोकालोक का वर्णन पढकर यह जान लेता है कि मुक्ति कर्म भूमि से ही मिल सकती है, पंच परावर्तन के ज्ञान से वह

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