Book Title: Anekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 29
________________ अनेकान्त / 26 सम्यग्ज्ञान में चार अनुयोगों की उपयोगिता - डॉ. जयकुमार जैन 261/3 पटेलनगर, नई मण्डी मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) 251001 अनुयोग शब्द अनु उपसर्ग पूर्वक युज् धातु से घञ प्रत्यय का निष्पन्न रूप है, जिसका अर्थ प्रश्न, पृच्छा, परीक्षा, चिन्तन, अध्यापन या शिक्षण आदि है'। इन अर्थो को ध्यान में रखते हुए दिगम्बर और श्वेवाम्बर दोनो परम्पराओं का साहित्य विषय की दृष्टि से चार भागों में वर्गीकृत किया गया है- प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग । समग्र जैन साहित्य का विभाजन करते हुए पुराण, चरित आदि आख्यान ग्रन्थों को प्रथमानुयोग में गर्भित किया गया है। करणा नुयोग में कथित करण शब्द द्वयर्थक है। यह जीव के परिणामों और गणित के सूत्रों का वाचक है। अतः इस अनुयोग के साहित्य के अन्तर्गत जीव और कर्म के सम्बन्ध आदि का निरूपण करने वाले कर्मसिद्धान्त विषयक ग्रन्थ और खगोल, भूगोल एव गणित का विवेचन करने वाले ग्रन्थ आते हैं। आचार सम्बन्धी समग्र साहित्य का अन्तर्भाव करणानुयोग के अन्तर्गत किया गया है तथा द्रव्य, गुण, पर्याय आदि वस्तुस्वरूप के प्रतिपादक ग्रन्थ द्रव्यानुयोग में अन्तर्भूत हैं। यहां यह कथ्य है कि दिगम्बर परम्परा में जिसे प्रथमानुयोग कहा गया है, श्वेताम्बर परम्परा में उसका उल्लेख धर्मकथानुयोग नाम से हुआ है और दिगम्बर परम्परा में जिसे करणानुयोग सज्ञा दी गई है, श्वेताम्बर परम्परा में उसका उल्लेख धर्मकथानुयोग नाम से हुआ है और दिगम्बर परम्परा में जिसे करणानुयोग संज्ञा दी गई है श्वेताम्बर परम्परा में उसका अभिधान गणितानुयोग है। इस प्रकार विषय दृष्टि से जैन साहित्य चार भागों में विभक्त है । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार यह अनुयोग का विभाजन आर्यरक्षित सूरि ने भविष्य में होने वाले अल्पबुद्धि शिष्यों को ध्यान में रखकर किया था। इस परम्परा के अनुसार अन्तिम दशपूर्वो के ज्ञाता आर्य वज्र हुए। इनका स्वर्गाधिरोहण दिसं. 144 (87 ई.) मे हुआ था। इनके बाद आर्यरक्षित सूरि हुए। इन्होंने श्वेताम्बर परम्परा मे स्वीकृत समग्र साहित्य को चार अनुयोगों में विभाजित किया । ग्यारह अगो (दृष्टिवाद को छोडकर) का समावेश चरणानुयोग में, ऋषिभाषितों का अन्तर्भाव धर्मकथानुयोग में, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थो का समावेश गणितानुयोग में किया तथा दृष्टिवाद नामक एक अंग को द्रव्यानुयोग में रखा। इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा चार अनुयोगों का विभाजन ईसा की प्रथम शताब्दी के अन्तिम चरण मे मानती है। दिगम्बर परम्परा में इस प्रकार का कोई स्पष्ट उल्लेख हो--ऐसा मेरी जानकारी में नहीं है। 2 द्रव्यसंग्रह की टीका में चारो अनुयोगों के लक्षणो का उल्लेख करते हुए चार अनुयोग रूप से चार प्रकार का श्रुतज्ञान कहा है। श्रुतज्ञान दो प्रकार का है - द्रव्यश्रुत और भावश्रुत। ये चारों अनुयोग मोक्षमार्ग में दीपक के समान हैं तथा द्रव्यश्रुत के वर्गीकरण रूप हैं। यह सुविदिततथ्य है कि द्रव्यश्रुत ही भावश्रुत के लिए कारण बनता है तथा भावश्रुत केवलज्ञान का बीज भूत है । 'विणयेण सुदमधीदं जदि पमादेण होदि विस्सरिदं । तमु अवट्ठादि परभवे केवलणाण च आवहदि । । मूलाचार गाथा 286

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