Book Title: Anekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 17
________________ अनेकान्त/14 परंपरितवाणी की प्राथमिकता के आधार के रूप में श्रुतकेवलिभणितत्व निर्दोषता, परस्पर अविरोधिता एवं तर्क-संगतता (दृष्ट-इष्ट-अविरोधिता) तथा सर्वजनहितकारिता माने गए हैं । इनमें से कोई भी तत्त्व प्रस्तुत संपादन में नहीं है अन्यथा इतना ऊहापोह, धमकियां और सार्वजनिक उद्घोषणाएँ ही क्यों होती? इससे इस प्रक्रिया के आधार ही संदेह के घेरे में आगए हैं। फलतः यह सारी प्रक्रिया ही एक प्रच्छन्न मनोवृत्ति या महत्त्वाकांक्षा की प्रतीक लगती है। 11. विद्वानों की सम्मतियां । ___ कुंदकुंद साहित्य के संपादन की प्रक्रिया के चालु होने पर इसकी वैधता पर प्रश्नचिन्ह लगे थे। उस समय अनेक साधुओं, संस्थाओं, विद्वानों एवं श्रावकों ने इन प्रश्न चिन्हों का समर्थन किया था एवं इस प्रक्रिया के विरोध में अपने तर्क-संगत वक्तव्य दिए थे। इनमें से कुछ ने अपने मतों में संशोधन किया है, इसका कारण अनुमेय है। इसे विचार-मंथन की प्रक्रिया का परिणाम भी कहा जा सकता है। इसके वावजूद भी, अधिकांश के मन में यह आवेश तो प्रत्येक अवसर पर दृष्टिगोचर होता ही है कि यह प्रक्रिया ठीक नहीं है। श्रद्धालु तो साधुवेश का आदर कर मौन रहते हैं पर, विद्वान के ऊपर तो संस्कृति-सरंक्षण और संवर्धन का दायित्व है। वह कैसे मौन रहे? उसने जीवंत स्वामी की प्रतिमा की पूज्यता' एव ‘एलाचार्य' प्रकरण का भी विरोध किया। विद्वत् जगत का मौन ‘णमोकारमंत्र के 'अरिहंताणं' पद की एकान्तवादिता पर भी टूटा है, यह वैयाकरणों (चंड, हेमचन्द्र, धबलादि टीकाएँ) के मत के विरोध में भी था इस मौन भंग का यह प्रभाव पड़ा कि 'अरिहंताणं' के सभी रूपों की प्रामाणिकता मानी गई। हॉ, वरीयता तो व्यक्तिगत तत्त्व है। यही नहीं, एक भारतवर्षीय जैन संस्था ने इस आगम-संरक्षिणी वृत्ति के पुरोधा को सार्वजनिक रूप से संमानित भी किया। दिल्ली में भी उसके साहस की अनुमोदना की गई। इस प्रक्रिया के संबंध में व्यक्तिगत चर्चाओं में जो कुछ श्रवणगोचर होता है वह भयकर मानसिक आधात उत्पन्न करता है। 12. सामान्यजन और विद्वज्जन की सहिष्णुता को आघात : कुंदकुंद के ग्रंथों के संपादन की दृष्टि के पीछे आगम तुल्य ग्रंथों की भाषा का भ्रष्ट एवं अशुद्ध मानना एवं उनके आचार्यो के भाषा-ज्ञान के प्रतिसदेह करने की धारणा से जिनवाणी और आचार्यो -दोनो की ही अवमानना रही है। इस धारणा ने संपादक-मान्य जयसेनाचार्य के शब्दरूपों को भी अमान्य कराया है। वे तो ग्यारहवीं सदी के ही प्राकृतज्ञ.थे। इसे मौन होकर सहना जैनो की अनेकान्तवादिता ने ही सिखाया है? फिर भी, इस दृष्टि से एवं कथनों से वे आहत एवं आवेशित तो हुए ही हैं। पर, यह शुभ आवेश है और इसका सुफल जिनवाणी के सहज रूप में बनाए रखने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने में सहायक होगा। 13. समालोचनाओं में भाषा का संयमन : संपादन कार्य या किसी भी कृति की समालोचनाओं या उनका समाधान देने में भाषा का संयम अत्यन्त प्रभावी होता है। पर ऐसा प्रतीत होता है कि संपादक

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