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अनेकान्त / 15
की समाधान भाषा उत्तरापेक्षी रही है। आचार्यों की परोक्ष अवमानना उनके ज्ञान और भाषा के प्रति अशोभन शब्द, सामान्य सार्वजनिक और पत्राचारी चेतावनियाँ आदि भाषा के असंयम को व्यक्त करते हैं। एक ओर का भाषा असंयम दूसरे पक्षों को भी प्रभावित करता है। भाषा का यह असंयम श्रद्धालुओं को भी कष्ट कर सिद्ध हुआ है। क्या यह असंयम विद्वान् जनों या साधुजनों को शोभा देता है? यह सचमुच ही दुर्भाग्य की बात है कि कुछ समयपूर्व कुंदकुंद के नवोदित भेद विज्ञानियों ने कुछ समयतक अपने विचारों की असंयमित भाषा से समाज में रौद्ररूप के दर्शन कराए थे और अब फिर कुंदकुंद आए हैं अपने साहित्य की भाषा के माध्यम से, जो असंयम फैलाने में निमित्त कारण बन रहे हैं। इसे अध्यात्मवादी कुन्दकुन्द का दुर्भाग्य कहा जावे या उसके अनुयायियों का, जो समाज को आध्यात्मिकता एकीकृत करने के माध्यम से उसे विशृंखलित करने की दिशा में अग्रणी बन रहा है । आगम तुल्य ग्रंथों की प्रतिष्ठा हेतु कुछ सुझाव
उपरोक्त अनेक प्रकार के चिन्तनीय प्रश्न चिन्हों एवं अप्रत्याशित रूप से जैन- तंत्र के लिए दूर दृष्टि से अहितकारी संभावनाओं के परिप्रक्ष्य में आगम तुल्य ग्रंथों के शौरसेनी आधारित सपादन का उपक्रम गहनपुनर्विचार चाहता है। इसके लिए कुछ आधार भूत संपादन-धारणाओं को परिवर्धित करना होगा। इनमें निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण हैं
1 हमारे परम्परित आगम तुल्य ग्रंथ जिस भाषिक बहुरूपता में हैं, उन्हें प्रामाणिक मानना चाहिए।
2. हमारे प्रकाशित आगम तुल्य ग्रंथों की भाषा की भ्रष्टता एवं अशुद्धता तथा उनके रचयिता आचार्यो में भाषा ज्ञान की अल्पता की धारणाएँ, अयथार्थ होने के कारण, छोडनी चाहिए ।
3 प्राकृत भाषा जनभाषा रही है। उसके मागधी, शौरसेनी और अर्ध मागधी आदि रूपो को क्षेत्रीय मानना चाहिए। हॉ, उनकी अन्योन्य प्रभाविता एक सहज तथ्य है । प्रत्येक जनभाषा में अनेक भाषाओं एवं उपभाषाओं के शब्दों का समाहार होता है। इसीलिए इनमें एक ही अर्थ के द्योतक शब्दों के अनेक रूप होते है। इसलिए इसका कोई स्वतंत्र एवं विलगित व्याकरण नहीं हो सकता । अत इसके प्रथम स्तर के जनभाषाधारित साहित्य को व्याकरणातीत मानना चाहिए। दिगम्बरों के आगमतुल्य प्राचीन ग्रंथो की भाषा दूसरी-तीसरी सदी की शौरसेनी गर्भित अर्धमागधी प्राकृत है। इसे स्वीकार करने मे अनापत्ति होनी चाहिए ।
4 व्याकरणातीत भाषा और साहित्य ही सर्वजन या बहुजन (90: और उससे अधिक) बोधगम्य हो सकता है। व्याकरण- निबद्ध भाषा तो अल्प- जन बोधगम्य होती है। यह तथ्य हम किसी भाषा - हिन्दी साहित्य और उसकी अनेक प्रांतीय / क्षेत्रीय बोलियों के आधार पर भी अनुमानित कर सकते है। 5. व्याकरणातीत जन भाषाओं को उत्तरवर्ती व्याकरण-निबद्ध करने की प्रक्रिया