Book Title: Anekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 13
________________ अनेकान्त / 10 वर्तमान संपादन से उत्पन्न प्रश्न चिन्ह : कुंदकुंद के ग्रंथों के संपादन के नाम से अर्धमागधी के शुद्ध शौरसेनीकरण की भाषिक परिवर्तन की प्रक्रिया ने विद्वत् जगत में बौद्धिक विक्षोभ उत्पन्न किया है। संभवतः यह 1980 में प्रारंभ में सामान्य था, पर अब यह अप - सामान्य होता लगता है। इस प्रक्रिया ने अनेक प्रश्नों और समस्याओं को जन्म दिया है जिनके समाधन की अपेक्षा न केवल विद्वत् जन को अभीष्ट है। अपितु श्रद्धालु जगत भी अंतरंग से उनकी अपेक्षा करता हैं। इस दृष्टि से निम्न बिन्दु सामने आते हैं 1. भाषिक परिवर्तन का अधिकार : जैनधर्म नैतिकता प्रधान धर्म है। इसके कुछ सिद्धान्त होते है। संपादन, संशोधन और प्रकाशन के भी कुछ सिद्धांत होते है । इसके अनुसार, मूल लेखक से अनुज्ञा अथवा उसके अभाव में उसकी हस्तलिखित प्रति का आधार आवश्यक है। दुर्भाग्य से ये दोनों ही स्थितियां वर्तमान प्रकरण में नहीं हैं। फलतः भाषिक परिवर्तन की प्रक्रिया मूलत अनैतिक है। इसमें परिवर्तन का अधिकार सामान्यतः किसी को नहीं है। हॉ, बीसवीं सदी में इसके अपवाद देखे जा सकते हैं। इसमें दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद् द्वारा प्रकाशित 'महावीर और उनकी आचार्य परम्परा' बिना प्रकाशक की अनुज्ञा तो क्या, उसके बिना जाने ही किसी अन्य संस्था ने प्रकाशित कर दी ।" अभी 'हिमालय में दिगम्बर मुनि' की स्थिति भी ऐसी ही बनी है। 7 ऐसा लगता है कि दक्षिण देश उत्तर से किंचित् अधिक अच्छा है, जहाँ 'रीयल्टी' के पुनः प्रकाशन के लिए ज्वालामालिनी ट्रस्ट ने विधिवत् अनुज्ञा ली ।" जब पुनः प्रकाशन के लिए विधिवत् अनुज्ञा अपेक्षित है फिर संपादन और सशोधन की तो बात ही क्या? इसमें मानसिक मंगलाचरण के समान मानसिक अनुज्ञा की धारणा ही बचाव कर सकती है। दूसरे प्राकृत में 'बहुलम्' के आधार पर जब उत्तरवर्ती वैयाकरणों ने यह माना है कि प्राकृत भाषा ( जनभाषा ) में एक ही शब्द के अनेक रूप होते हैं । 'कुंदकुद शब्द कोष' से यह बात स्पष्ट से जानी जाती है"। इस स्थिति में इन रूपों में एकरूपता लाने की प्रक्रिया मूल लेखन की भावना के प्रतिकूल है। आगम तुल्य ग्रंथों के प्रकरण में तो यह और भी पुण्यक्षयी कार्य है क्योंकि हम उन्हें पवित्र मानते हैं। शब्दो का हेरफेर उन्हे अपवित्र बनाता है। इसके कारण उनके प्रति श्रद्धा में डिगन संभावित है। इन सभी दृष्टियों से यह कार्य नैतिकतः अनधिकार चेष्टा है। फलतः आगमतुल्य ग्रंथो मे भौतिक परिवर्तन का अधिकारी कौन है, यह प्रश्न विचारणीय बन गया है। 2. विरूपण का प्रभाव : आगम तुल्य ग्रंथों के शाब्दिक शौरसेनीकरण से उनके मूलरूप का विरूपण होता है यह स्पष्ट है। इस विरूपण से (i) आगम भाषा की प्राचीनता समाप्त होती है । (ii) इससे उनमें श्रद्धाभाव का ह्रास होता है। (iii) विरूपित ग्रंथों की प्रामाणिकता में संदेह उत्पन्न होता है। (iv) अर्थान्तर न्यास की संभावना बढ़ती है। (v) घटकवाद को प्रोत्साहन मिलता है।

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