Book Title: Anekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 14
________________ अनेकान्त/11 (vi) विरूपण से आगमों की ऐतिहासिकता पुनर्विचारिणी बनती है और प्राकृत के भाषिक विकास के सूत्रों का लोप होता हैं (vii) विरूपण आगम तुल्य ग्रंथों को उत्तरवर्ती काल का सिद्ध करेगा। वैसे भी अनेक शोधक इन ग्रंथों को पांचवी-छठी सदी से भी उत्तरवर्ती होने की बात सिद्ध करने के तर्क देने लगे है। यह विरूपण इन तर्कों को बलवान बनाएगा। इसलिए अब तक किसी भी दिगंबर विद्वान ने इन ग्रंथों मे व्याकरणीयता लाने का साहस नहीं दिखाया। इस स्थिति को समरस बनाए रखने के लिए यह अधिक अच्छा होता कि पाठ भेदों के टिप्पण दे दिए जाते। इस विरूपण की स्वैच्छिकता भी सामान्यजन की समझ से परे है। इसका उद्देश्य गहनतः विचारणीय है। 3. शब्दभेद से अर्थ भेद न होने की मान्यता : यदि शब्द भेद एवं उपरोक्त प्रकार के विरूपण (या एकरूपता) से अर्थ भेद न होने की बात स्वीकार की जावे, तो इस प्रक्रिया का अर्थ ही कुछ नहीं होता। इसके लिए प्रयत्न ही व्यर्थ है। जब शब्दैक्य से अर्थ भेद हो सकता है और बीसवीं सदी में भी नया संप्रदाय (भेद विज्ञानी) पनप सकता है, तब शब्द भेद से अर्थ-भेद तो कभी भी संभावित है। 4. प्राकृत भाषा के स्वरूप की हानि : प्राकृत भाषा चाहे वह अर्धमागधी हो या शौरसेनी, जन-भाषा है और उसका प्रथम स्तर का साहित्य व्याकरणातीत युग की दैन है। जनभाषा के स्वरूप के आधार पर उसकी सहज-बोध-गम्यता के लिए उसमें बहुरूपता अनिवार्य है। यदि इसे व्याकरण-निबद्ध या संशोधित किया जाता है, तो उसके स्वरूप की और ऐतिहासिकता की हानि होती है। क्या हम उसके सर्व-जन-बोध-गम्य स्वरूप की शास्त्रीय मान्यता का विलोपन चाहते है? 5. दिगम्बर आगमतुल्य ग्रंथों की भाषात्मक प्रामाणिकता की हानि : यह माना जाता है कि दिगम्बरों के आगमतुल्यग्रंथ पाँच, छह ही हैं। अन्य ग्रंथ तो पर्याप्त उत्तरवर्ती हैं। इनकी रचना प्रथम से तृतीय सदी के बीच लगभग सौ वर्षों में हुई है। यह मान्यता विशेष आपत्तिजनक नहीं होनी चाहिए। इनकी भाषा के विषय में डा खडबडी ने षट्खण्डागम के संदर्भ में उसे बड़ी मात्रा में शौरसेनी भागक बताया है 2. शुद्ध शौरसेनी नहीं। उन्होंने उसके शौरसेनी-अंग के गहन-अध्ययन का सुझाव भी दिया है। डॉ राजाराम भी यह मानते हैं किशिलालेखों और अभिलेखों में क्षेत्रीय प्रभाव मिश्रित हुए है । फलतः उसका व्याकरण निबद्ध स्वरूप कैसे माना जा सकता है? भाषा-विज्ञानी तो उन प्राचीन अभिलेखों की प्राकृतों में शौरसेनी का अल्पांश ही मानते हैं । यही स्थिति कुंदकुंद के साहित्य की भी है। यदि उपलब्ध कुंदकुंद साहित्य की भाषा अत्यंत भ्रष्ट और अशुद्ध है तो तत्कालीन अन्य ग्रंथो की भाषा भी तथैव संभावित है। इसके अनेक शब्दों को 'खोटा सिक्का' तक कहा गया है। इससे जिस प्रकार कुंदकुंद के ग्रंथों की स्थिति

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