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श्वेताम्बर मागम और दिगम्बरत्व
सिजंति, तं अट्ठ बाराहेइ, आराहित्ता, परमेहि उस्सास (२) आचारांग सूत्र में साधुओं के वस्त्रों के विषय
-नीसासेहि सिदे. बुढे, मुत्ते, परिनिव्वुडे, सव्वदुखप्प. में चर्चा इस प्रकार हैहीणे ।
जे भिक्खू तिवत्येहि परिसिते पाय चउत्थेहिं तस्सणं उस समय पाश्र्वनाथ के अनुयायी कालस्यवेषी पुत्र णो एवं भवति च उत्थं वत्थं जाइस्सामि । से अहेसाणिजमाई नाम का अनगार स्थविरों के पाम आया। (उनके द्वारा वत्थाई जाएज्जा, अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारेज्जा गो सामायिक, आत्मा, व्युत्सर्ग, क्रोध, मान, माया, लोभ घोविज्जा, गो रएज्जा, णो घोत्तरत्ताह वत्थाई घारेज्जा, पर चर्चा करने के पश्चात् पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म से अपलिउंचमाणे गामंतरेम, ओमचेलए। एय ख बत्थमहावीर के पंचमहाव्रतिक सप्रतिक्रमण धर्म को प्राप्त पारिस्स सामग्गियं । १।। अहपुण एव जाणेज्जा उवतिक्कते करके विहार करने ल 1)xxx बहुत वर्षों तक खलु हेमते गिम्हे पहिवन्ने अधा परिजुन्नाइ, वत्थाइ परिश्रामण्य पर्याय की पालना करता हुआ कालास्यवेसी पुत्र विज्जा, अदुवा सतरुत्तरे, अदुवा प्रोमचेले, अदुवा एगनग्नभाव, मुंडभाव, अस्नान, अदन्तधावन, अछत्र. भूमि साडे, अदुवा अचेले, लाघवीयं आगममाणे। तवे से अभिशय्या, फलक शय्या, काष्ठ शय्या, केशलोंच, ब्रह्मचर्यवास, समन्नागए भवति । जमेयं भगवया पवेदितं तमेव अभि परगृहप्रवेश, लब्ध्यापलब्धि, इन्द्रियों के लिए कण्टक के समेच्चा सब्दतो सम्वत्ताए समत्तमेव समभिजाणिया ॥२॥ समान २२ परीषहो को सहने लगा और चरम उच्छ्वास जस्सण भिक्खुस्स एवं भवति-पुट्ठो खलु अहमंसि, निःश्वास की आराधना करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परि.
नालमहमंसि सीयफासं अहियासित्तए से वसूम सम्व समनिवृत्त, सर्वदुखहीन हो गया।
ण्णागय पन्नाणेणं अप्पाणेणं केइ अकरणाए आवठे तवइस वर्णन से यह जाहिर होता है कि उस समय जैन
सिणो हु त सेय ज सेमे विहमादिए, तत्थवि तस्स काल साधु संघ दो दलों में विभाजित थे। एक थे पाश्र्वनाथ के परियाए, सेवि तत्थ विअति कारए इच्चेतं विमोहायतणं अनुयायी "पार्श्वपत्य" जो सामायिक नहीं करते थे और हियं, सुह, खम, णिस्सेयसं, आणगामियं तिमि ॥३॥ आत्मा को ही सामायिक मानते थे और प्रतिक्रमण भी जे भिक्खू दोहिं वत्थेहिं परिवसिते पाय तइएहि तस्सण नही करते थे और ब्रह्मचर्य नाम का अलग से महाव्रत णो एवं भवति वतिय वत्थ जाइस्सामि । से अहेसणिज्जाई नही मानते थे। दूसरे थे महावीर के अनुयायी बहुश्रुत वत्थाइ जाएजा जाव एवं खलु तस्म भिक्खुस्स साम"स्थविर" जो सामायिक प्रतिक्रमण नियमपूर्वक करते थे ग्गिय ॥१॥ अहपुण एवं जाणेज्जा उवक्कते खलु हेमते और ब्रह्मचर्य को अलग से महाव्रत मानते थे। जब काल- गिम्हे पडिवन्ने अहा परिजुन्नाइ वत्थाइ परिट्ठवेज्जा, स्यवेषिक पुत्र से स्थविरों का वार्तालाप और विचारो का
अदुवा सनरुत्तरे अदुवा ओमचेलए, अदुवा एगसाडे अदुवा आदान-प्रदान हुआ तो वह भी महावीर का अनुयायी अनेले कविय आगममाणे त मे अधिमण
अचेले लाविय आगममाणे तवे से अभिसम्मणागए भवति । होकर नग्न विचरण करने लगा। इसका यह अर्थ स्पष्ट जहेय भग पता पवेदित तमेव अमिसमेच्चा सघतो सध्यहै कि महावीर के स्थविर शिष्य दिगम्बर ही होते थे और ताप सम्मत्तमेव अभिजाणिवाशा नग्नता की श्रेष्ठता ही इस कथानक से दशित है।
जे भिक्खू एगेण वत्येण परिसिते पायवितिएण, इसी की पुष्टि कात्यायन सगोत्र स्कदक परिव्राजक तस्स णो एवं भवइ वितियं वत्थं जाइस्सासि से अहेसाणिके प्रसग से होती है। जिसने श्रमण महावीर के पास जं वत्थ जाएज्जा, अहापरिग्गहिय वा वस्थ धारेज्जा, जाकर उनके वचनों से प्रभावित होकर अपने त्रिदण्ड और जाव गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुन्न बत्थं परिठ्ठवं ज्जा, कण्डिका का ही नही किन्तु एकान्त मे जाकर अपने गेरुआ अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले लाविय आगममाणे, जाव वस्त्र को छोड़ दिया। उसके पश्चात् श्वेत वस्त्र धारण सम्मतमेव समभि जाणिया, जस्मण, भिक्खुस्स एवं भवति करने का कोई सकेत नही है।
एगो अहमसि नो मे आत्थ कोइ नया अहम वि कस्स एवं