Book Title: Anekant 1993 Book 46 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 11
________________ श्वेताम्बर आगम और दिगम्बरत्व 0 जस्टिस एम० एल० जैन मा कुछ वर्षों पहले विश्व प्रसिद्ध श्वेताम्बर तीर्थ के लिए मुझे श्वेताम्बर मख्य आगम सूत्रो के अध्ययन की राजस्थान मे आबू के और गुजरात मे शत्रुजय (पाली- प्रेरणा हई। मागधी प्राकृत भाषा का ज्ञान न होने के ताना) के दर्शन करने का पावन अवसर मिला। वहा कारण कठिनाई आई किन्तु फिर भी इधर-उधर जो देखा पाया कि दोनो तीर्थस्थलो पर एक-एक दिगम्बर मन्दिर तो यह लगा कि श्वेनाबर आगम तो दिगम्बरत्व को मान्य भी हैं. हां, आबू के देवस्थान का दिगम्बर मन्दिर छोटा करते हैं तया श्वेताम्बर परम्परा में विशाल जैन साहित्य है परन्तु पालीताना का दिगम्बर देवालय काफी बडा है। विद्यमान है और हर दिगम्बर विद्वान को इनका गहन निश्चय ही यह श्वेताम्बर परम्परा की सहिष्णुता का अध्ययन करना चाहिए। यह सम्भव है कि हम उनकी परिचायक तो है ही किन्तु इसका आगम सम्मत कारण कुछ नातों से कतई सहमत न हों, कई बातें अब समयानु भी होना चाहिए; हो न हो श्वेताम्बर परम्परा मे भी ऐसे कल भी नही दी भा एस कुल भी नही रही परन्तु इस अध्ययन से जैन धर्म और लोग थे जो दिगम्बर परम्परा को भी अपना ही मानते थे, आचरण की परम्परा के विकास के इतिहास का परिचय ऐसा विचार भी पैदा हुआ। अवश्य ही मिलता है। श्वेताम्बर मुनि जिन विजय जी ने बताया था कि जहा तक न्याय, स्याद्वाद, आरमा, कर्म आदि सिद्धानों मथुरा के कंकाली टीले मे जो प्राचीन प्रतिमाएं मिली हैं का सवाल है वहा तक दोनो ही परम्पराओ के ग्रन्थों मे वे नग्न हैं और उन पर जो लेख अकित हैं वे श्वेताम्बर पूर्ण समानता है और शास्त्रकारो मे आपस मे खूब आदानग्रन्थ कल्पसूत्र में दी गई स्थिरावली के अनुसार हैं। कुछ प्रदान हुआ है। क्या ही अच्छा हो यह सिलसिला आगे विद्वानो की खोज यह है कि प्रारम्भ में तो तीर्थकर बढ़े जिससे रूढ़िवादी दीवारें गिराई जा सके और जैन मूर्तियां सर्वत्र दिगम्बर ही होती थी किन्तु जब भेदभाव समाज की सच्ची परम्परा विकसित हो। तो आइए, इस उग्र होने लगा तो एक वर्ग ने नग्न मूर्तियो के पादमून दष्टि से श्वेताम्बर मुख्य प्रागमो का कुछ सिंहावलोकन पर वस्त्र का चिह्न बनाना प्रारम्भ कर गिरनार पर्वत कर लें। पर अपनी अलग परम्परा की नीव डाली। गिरनार मे कर डाली गई यह परम्परा आगे बढ़ी और ऐसा लगता है कि (१) भगवती सूत्र में एक प्रसंग है'-'स्थविर और वैष्णव भक्ति धारा के प्रभाव से मतियो को वस्त्रालंकारो आर्य कालस्यवेषि पुत्र अनगार'। इसमें लिखा हैसे विभषित किया जाने लगा। दोनो ही परन्पराओ के तेणं कालेण, तेण समएणं पासच्चिज्जे कालावेसिए अनुसार भूषण मण्डित स्वरूप सम्पूर्ण सन्यास के पूर्व पुते णाम अणगारे जेणेव थेरा भगवतो तेणेव उवागच्छति तीथंकरों के युवराज पद या सम्राट पद को शोभा को xxx तएणं से कालासवेसिय पुत्ते अरणगारे बहूणि दशित करता है। लेकिन जो विचार भेद की बरार पडी वासाणि सामन्न परियाग पाउण इ, पाउणित्ता जस्सट्टाए उसने सीमा छोड़ दी और एक दूसरे के बारे मे विचित्र- कीरई नग्नभावे मुंडभावे, अण्हाणय, अदंतधुवरणय, अच्छ. विचित्र कहानिया गढ़कर परस्पर निरादर और उपेक्षा ने त्तयं, अणोवाहणय, भूमिसेज्जा, फलहसे ज्जा, कट्ठसेज्जा, घर कर लिया और आगम का भी अपनी-अपनी परम्परा केस लोओ, बभचेर वासो, परघरप्पवेसो, लच्छावलच्छो, के अनुसार वर्गीकरण कर लिया, ऐसा क्यों हुआ यह जानने उच्चावया, गामकटगा, बावीसं परिसहेवसग्गा अहिया

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